________________
३१० छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ८, १८६. कुदो ? अप्पसत्थवेदोदएण बहूणं दंसणमोहणीयखवगाणमभावा । उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ॥ १८६ ॥ वेदगसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा ।। १८७॥ सुगमाणि दो वि सुत्ताणि । एवं दोसु अद्धासु ॥ १८८ ॥
जधा पमत्तापमत्ताणं सम्मत्तप्पाबहुअं परूविदं, तधा दोसु अद्धासु सव्वत्थोवा खइयसम्मादिट्ठी, उवसमसम्मादिट्ठी संखेज्जगुणा त्ति परूवेयव्यं ।
सव्वत्थोवा उवसमा ॥ १८९ ॥ खवा संखेज्जगुणा ॥ १९० ॥ दो वि सुत्ताणि सुगमाणि ।
क्योंकि, अप्रशस्त वेदके उदयके साथ दर्शनमोहनीयके क्षपण करनेवाले बहुत जीवोंका अभाव है।
नपुंसकवेदियोंमें प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १८६ ॥
उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे वेदकसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १८७ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं ।
इसी प्रकार नपुंसकवेदियोंमें अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों गुणस्थानों में सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व है ॥ १८८॥
जिस प्रकारसे नपुंसकवेदी प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयतोंका सम्यक्त्वसम्बन्धी अल्पबहुत्व कहा है, उसी प्रकार अपूर्वकरण आदि दो गुणस्थानोंमें 'क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम है, उनसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव संख्यातगुणित हैं ' इस प्रकार प्ररूपण करना चाहिए
नपुंसकवेदियोंमें उपशामक जीव सबसे कम हैं ॥ १८९ ॥ उपशामकोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १९० ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org