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छक्खंडागमे जीवद्वाणं
[ १, ६, ७७.
गुणट्टाणादो तं गुणट्टाणं णिरंतर मिदि विहिमुहेण दव्यट्ठियणयावलंबिसिस्साणं पडिसेहपण ।
सजोगिकेवली ओघं ॥ ७७ ॥
णाणेगजीवं पच णत्थि अंतरं, णिरंतर मिच्चेद्रेण भेदाभावा । मणुसअपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ७८ ॥
किम मेदस्स एम्महंतस्स रासिस्स अंतरं होदि ? एसो सहाओ एदस्स । ण च सहावे जुत्तिवास्स पवेसो अस्थि, भिण्णविसयादो ।
उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो ॥ ७९ ॥
सुगममेदं सुतं ।
एगजीवं पडुच्च जहणेण खुदाभवग्गहणं ॥ ८० ॥
कुदो ? अप्पिदअपज्जत्तएस उपज्जिय अइदहरकालेण आगदस्स खुद्दाभवहणमेत्तं तरुत्रलंभा ।
कहते हैं । इस प्रकार विधिमुख से द्रव्यार्थिकनयके अवलम्बन करनेवाले शिष्योंके प्रतिषेध प्ररूपण करनेके लिए ' निरन्तर ' इस पदका निर्देश सूत्रमें किया गया है । सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है ॥ ७७ ॥
क्योंकि, ओघमें वर्णित नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है, इस प्रकारसे इस प्ररूपणा में कोई भेद नहीं है ।
मनुष्य लब्ध्यपर्यातकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवों की अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। ७८ ।।
शंका- इस इतनी महान् राशिका अन्तर किस लिए होता है ?
समाधान- -यह तो राशियोंका स्वभाव ही है । और स्वभावमें युक्तिवादका प्रवेश है नहीं, क्योंकि, उसका विषय भिन्न है ।
मनुष्य लब्ध्यपर्याप्तकों का उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमके असंख्यातवें भाग है ॥ ७९ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
एक जीवकी अपेक्षा लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है ॥ ८० ॥
क्योंकि, अविवक्षित लब्ध्यपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर अति स्वल्पकाल से पुनः लब्ध्यपर्याप्तकों में आए हुए जीवके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण अन्तर पाया जाता है ।
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