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________________ १, ६, ८५. ] अंतराणुगमे देव - अंतरपरूवणं [ ५७ उक्कस्सेण अनंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियद्रं ॥ ८१ ॥ कुदो ! मणुस अपज्जत्तस्स एइंदियं गदस्स आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तपोलपरियडी परियण पडिणियत्तिय आगदस्स सुत्तुतं तरुवरंभा । एदं गदं पडुच्च अंतरं ॥ ८२ ॥ सिस्साणमंतरसंभवपदुप्पायणटुमेदं सुत्तं । गुणं पडुच्च उभयदो वि णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ८३ ॥ उभयदो जहण्णुक्कस्सेण णाणेगजीवेहि वा णत्थि अंतरमिदि वृत्तं होदि । कुदो ? मग्गणमछंडिय गुणंतरग्गहणाभावा । देवदीए देवसु मिच्छादिट्टि असंजदसम्मादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ८४ ॥ सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं ॥ ८५ ॥ उक्त लब्ध्यपर्याप्तक मनुष्योंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गल परिवर्तनप्रमाण है ॥ ८१ ॥ क्योंकि, एकेन्द्रियों में गये हुए लब्ध्यपर्याप्त मनुष्यका आवलीके असंख्यातवें भागमात्र पुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर पुनः लौटकर आये हुए जीवके सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है । यह अन्तर गतिकी अपेक्षा कहा है ।। ८२ ॥ यह सूत्र शिष्योंको अन्तरकी संभावना बतलानेके लिए कहा गया है। गुणस्थानकी अपेक्षा तो दोनों प्रकारसे भी अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ८३॥ उभयतः अर्थात् जघन्य और उत्कर्षसे, अथवा नाना जीव और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, यह अर्थ कहा गया समझना चाहिए। क्योंकि, मार्गणाको छोड़े विना लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंके अन्य गुणस्थानका ग्रहण हो नहीं सकता । देवगति में, देवों में मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ८४ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ८५ ॥ १ देवगतौ देवानां मिथ्यादृष्टयसंयत सम्यग्दृष्टयोर्न । नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एक्जीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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