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________________ ५८] छक्खंडागमे जीवाणं [ १, ६, ८६. कुदो ? मिच्छादिद्वि-असंजदसम्मादिट्ठीणं दिट्ठमग्गाणं देवाणं गुणंतरं गंतूण अइदहरकालेण पडिणियत्तिय आगदाणं अंतोमुहुत्तअंतरुवलंभा। उक्कस्सेण एक्कत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ ८६ ॥ मिच्छादिहिस्स ताव उच्चदे- एको दयलिंगी अट्ठावीससंतकम्मिओ उवरिमगेवेज्जेसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो । एक्कत्तीसं सागरोमाणि सम्मत्तेणंतरिय अवसाणे मिच्छत्तं गदो । लद्धमंतरं ( ४ ) । चुदो मणुसो जादो । चदुहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एक्कत्तीसं सागरोत्रमाणि उक्करसंतरं होदि। असंजदसम्मादिहिस्स उच्च - एक्को दव्वलिंगी अट्ठावीससंतकम्मिओ उपरिमगेवज्जेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं गंतूणंतरिय एक्कत्तीसं सागरोवमाणि अच्छिद्ग आउअंबंधिय सम्मत्तं पडिवण्णो । लद्धमंतरं (५)। पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि एकत्तीसं सागरोवमाणि असंजदसम्मादिहिस्स उक्कस्संतरं होदि । क्योंकि, जिन्होंने पहले अन्य गुणस्थानों में जाने आनेसे अन्य गुणस्थानोंका मार्ग देखा है ऐसे मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका अन्य गुणस्थानको जाकर अति स्वल्पकालसे प्रतिनिवृत्त होकर आये हुए जीवोंके अन्तर्मुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है। उक्त मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम इकतीस सागरोपमकालप्रमाण है ॥ ८६ ।। इनमेंसे पहले मिथ्यादृष्टि देवका अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम ग्रैवेयकोंमें उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इकतीस सागरोपमकाल सम्यक्त्वके साथ बिताकर आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे अन्तर लब्ध हुआ (४)। पश्चात् वहांसे च्युत हो मनुष्य हुआ । इस प्रकार चार अन्तर्मुहूर्तोसे कम इकतीस सागरोपमकाल मिथ्यादृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब असंयतसम्यग्दृष्टि देवका अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंके सत्त्ववाला कोई एक द्रव्यलिंगी साधु उपरिम अवेयकोंमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो इकतीस सागरोपम रहकर और आयुको बांधकर, पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ (५)। ऐसे पांच अन्तर्मुहूर्तोंसे कम इकतीस सागरोपमकाल असंयतसम्यग्दृष्टि देवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। १ उत्कर्षेण एकत्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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