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________________ १००1 छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, १९०. पयलाणं बंधे वोच्छिण्णे मदो देवो जादो। अहवस्सेहि तेरसंतोमुहुत्तेहि य अपुग्धकरणद्धाए सत्तमभागेण च ऊणिया सगहिदी अंतरं । अणियट्टिस्स वि एवं चेव । णवरि वारस अंतोमुहुत्ता एगसमओ च वत्तव्यो । दोण्हं खवाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ।। १९० ।। सुगममेदं। उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ १९१ ॥ अप्पमत्तत्थीवेदाणं वासपुधत्तेण विणा अण्णस्स अंतरस्स अणुवलंभादो । एगजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १९२ ॥ सुगममेदं । पुरिसवेदएसु मिच्छादिट्ठी ओघं ॥ १९३॥ अन्तर लब्ध हुआ। पीछे निद्रा और प्रचलाके बंध-विच्छेद हो जाने पर मरा और देव होगया। इस प्रकार आठ वर्ष और तेरह अन्तर्मुहूतौसे, तथा अपूर्वकरण-कालके सातवें भागसे हीन अपनी स्थितिप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर है । अनिवृत्तिकरण उपशामकका भी इसी प्रकारसे अन्तर होता है । विशेष बात यह है कि उनके तेरह अन्तर्मुहूर्तोंके स्थानपर बारह अन्तर्मुहूर्त और एक समय कम कहना चाहिए। स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ १९० ॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण क्षपकोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है॥ १९१ ॥ __ क्योंकि, अप्रमत्तसंयत स्त्रीवेदियोंका वर्षपृथक्त्वके अतिरिक्त अन्य अन्तर नहीं पाया जाता है। एक जीवकी अपेक्षा उक्त दोनों गुणस्थानवी जीवोंका अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १९२ ॥ यह सूत्र सुगम है। पुरुषवेदियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर ओघके समान है ॥ १९३ ।। १ द्वयोः क्षपकयो नाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः। स. सि. १, ८. २ उत्कर्षण वर्षपृथक्त्वम् । स. सि. १,८. ३ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि, १,८. ४ पुंवेदेषु मिध्यादृष्टेः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal use only .. www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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