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________________ १, ६, १८९.1 अंतराणुगमे इत्यिवेदि-अंतरपरूवणं दोण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णुक्कस्समोघं ॥ १८७॥ कुदो ? एगसमय-बासपुधत्तंतरेहि ओघादो भेदाभावा । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १८८ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ १८९ ॥ तं जहा-एक्को अण्णवेदो अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ त्थीवेदमणुसेसुववण्णो । अट्टवस्सिओ सम्मत्तं संजमं च जुग पडिवण्गो (१)। अणंताणुबंधी विसंजोइय (२) दंसणमोहणीयमुवसामिय (३) अप्पमत्तो (४) पमत्तो (५) अप्पमत्ता (६) अपुव्वो (७) अणियट्टी (८) मुहुमो (९) उवसंतो (१०) भूओ पडिणियत्तो मुहुमो (११) अणियट्टी (१२) अपुल्यो (१३ ) हेट्ठा पडिदूगंतरिदो स्थीवेदट्ठिदिं भमिय अवसाणे संजमं पडिवज्जिय कदकरणिज्जो होदूग अपुव्वुवसामगो जादो । लद्धमंतरं । तदो णिद्दा स्त्रीवेदी अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण, इन दोनों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर ओघके समान है ॥ १८७॥ ____क्योंकि, जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है, इनकी अपेक्षा ओघसे इनमें कोई भेद नहीं है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८८ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व है ॥ १८९ ॥ जैसे- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव, स्त्रीवेदी मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और आठ वर्षका होकर सम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पश्चात् अनन्तानुबन्धी कषायका विसंयोजन कर (२) दर्शनमोहनीयका उपशम कर (३) अप्रमत्तसंयत (४) प्रमत्तसंयत (५) अप्रमत्तसंयत (६) अपूर्वकरण (७) अनिवृत्तिकरण (८) सूक्ष्मसाम्पराय (९) और उपशान्तकषाय (१०) होकर पुनः प्रतिनिवृत्त हो सूक्ष्मसाम्पराय (११) अनिवृत्तिकरण (१२) और अपूर्वकरणसंयत हो (१३) नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ और स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण कर अन्त में संयमको प्राप्त हो कृतकृत्यवेदक होकर अपूर्वकरण उपशामक हुआ। इस प्रकार १ द्वयोरुपशमकयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहर्तः । स. सि. १,८. ३ उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १,८.. . Jain Education International -For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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