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________________ २१८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ७, ३२. बहुसु गुणहाणेसु संतेसु किण्णु कस्सइ अण्णो भावो होदि, ण होदि त्ति संदेहो मा होहदि त्ति तप्पडिसेहटुं तप्परूवणाकरणादो । एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥ ३२ ॥ सुगममेदं । __ओरालियमिस्सकायजोगीसु मिच्छादिट्ठि-सासणसम्मादिट्ठीणं ओघं ॥३३॥ एदं पि सुगमं । असंजदसम्मादिहि ति को भावो, खडओ वा खओवसमिओ वा भावो ॥ ३४॥ कुदो ? खइय-वेदगसम्मादिट्ठीणं देव-णेरइय-मणुसाणं तिरिक्ख-मणुसेसु उप्पज्ज समाधान--नहीं, क्योंकि, त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकोंमें बहुतसे गुणस्थागोंके होनेपर क्या किसी जीवके कोई अन्य भाव होता है, अथवा नहीं होता है, इस प्रकारका सन्देह न होवे, इस कारण उसके प्रतिषेध करनेके लिए उनके भावोंकी प्ररू ___ इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर सयोगिकवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३२॥ यह सूत्र सुगम है। औदारिकमिश्रकाययोगियोंमें मिथ्यादृष्टि और सासादनसम्यग्दृष्टियोंके भाव ओघके समान हैं ॥ ३३॥ यह सूत्र भी सुगम है। औदारिकमिश्रकाययोगी असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? क्षायिक भाव भी है और क्षायोपशमिक भाव भी है ॥ ३४ ॥ क्योंकि, तिर्यंच और मनुष्योंमें उत्पन्न होनेवाले क्षायिकसम्यग्दृष्टि तथा वेदक १ योगानुवादेन कायवाङ्मानसयोगिनां मिथ्यादृष्टयादिसयोगकेवल्यन्तानामयोगकेवलिनां च सामान्यमेव । त. सि. १,८. पणा की गई है। Jain Education International For Private & Personal Use Only . www.jainelibrary.on www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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