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१, ७, ३१.] भावाणुगमे तसकाइयभाव-परूवणं
[२१७ कुदो ? एत्थतणगुणट्ठाणाणमोघगुणट्ठाणेहिंतो अप्पिदभावं पडि भेदाभावा । एइंदिय-वेईदिय-तेइंदिय-चउरािंदिय-पंचिंदियअपजत्तमिच्छादिट्ठीणं भावो किण्ण परूविदो? ण एस दोसो, परूवणाए विणा वि तत्थ भावोवलद्धीदो । परूवणा कीरदे परावबोहणटुं, ण च अवगयअट्टपरूवणा फलवंता, परूवणाकज्जस्स अवगमस्स पुव्वमेवुप्पण्णत्तादो।
एवमिंदियमग्गणा समत्ता । कायाणुवादेण तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु मिच्छादिट्टिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि त्ति ओघं ॥३१॥
___ कुदो ? ओघगुणहाणेहिंतो एत्थतणगुणट्ठाणाणमप्पिदभावेहि भेदाभावा । सव्वपुढवी-सव्वआउ-सव्वतेउ-सव्ववाउ-सव्यवणप्फदि-तसअपज्जत्तमिच्छादिट्ठीणं भावपरूवणा सुत्ते ण कदा, अवगदपरूवणाए फलाभावा । तस-तसपज्जत्तगुणट्ठाणभावो ओघादो चेव णज्जदि त्ति तब्भावपरूवणमणत्थयमिदि तप्परूवणं पि मा किज्जदु त्ति भणिदे ण, तत्थ
क्योंकि, पंचेन्द्रियपर्याप्तकों में होनेवाले गुणस्थानोंका ओघगुणस्थानोंकी अपेक्षा विवक्षित भावोंके प्रति कोई भेद नहीं है।
शंका-यहांपर एकेन्द्रिय, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय तथा पंचेन्द्रिय अपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवोंके भावोंकी प्ररूपणा क्यों नहीं की?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, प्ररूपणाके विना भी उनमें होनेवाले भावोंका ज्ञान पाया जाता है। प्ररूपणा दूसरोंके परिज्ञानके लिये की जाती है, किन्तु जाने हुए अर्थकी प्ररूपणा फलवती नहीं होती है, क्योंकि, प्ररूपणाका कार्यभूत ज्ञान प्ररूपणा करनेके पूर्व में ही उत्पन्न हो चुका है।
इस प्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई। कायमार्गणाके अनुवादसे त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टिसे लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३१॥
क्योंकि, ओघगुणस्थानोंकी अपेक्षा त्रसकायिक और त्रसकायिकपर्याप्तकोंमें होनेवाले गुणस्थानोंका विवक्षित भावोंके साथ कोई भेद नहीं है। सर्व पृथिवीकायिक, सर्व जलकायिक, सर्व तेजस्कायिक, सर्व वायुकायिक, सर्व वनस्पतिकायिक और त्रस लब्ध्यपर्याप्तक मिथ्यादृष्टि जीवोंकी भावप्ररूपणा सूत्रमें नहीं की गई है, क्योंकि, जाने हुए भावोंकी प्ररूपणा करने में कोई फल नहीं है।
शंका--त्रसकायिक और त्रसकायिक पर्याप्त जीवोंमें सम्भव गुणस्थानोंके भाव ओघसे ही ज्ञात हो जाते हैं, इसलिए उनके भावोंका प्ररूपण करना अनर्थक है, अतः उनका प्ररूपण भी नहीं करना चाहिए ?
१ कायानुवादेन स्थावरकायिकानामौदयिको भावः । त्रसकायिकानां सामान्यमेव । स. सि. १,८..
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