________________
२१६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ७, २९. ते जहा- वेदगसम्मादिट्ठीणं खओवसमिओ भावो, खइयसम्मादिट्ठीणं खइओ, उवसमसम्मादिट्ठीणं ओवसमिओ भावो । तत्थ मिच्छादिट्ठीणमभावे संते कधमुवसमसम्मादिट्ठीणं संभवो, कारणाभावे कज्जस्स उप्पत्तिविरोहादो ? ण एस दोसो, उवसमसम्मत्तेण सह उवसमसेडिं चडंत-ओदरंताणं संजदाणं कालं करिय देवेसुप्पण्णाणमुवसमसम्मत्तुवलंभा। तिसु हाणेसु पउत्तो वासदो अणत्थओ, एगेणेव इट्टकज्जसिद्धीदो ? ण, मंदबुद्धिसिस्साणुग्गहट्टत्तादो ।
ओदइएण भावेण पुणो असंजदो ॥ २९ ॥ सुगममेदं ।
एवं गइमग्गणा सम्मत्ता । इंदियाणुवादेण पंचिंदियपज्जत्तएसु मिच्छादिटिप्पहुडि जाव अजोगिकेवलि ति ओघं ॥ ३०॥
जैसे-वेदकसम्यग्दृष्टि देवोंके क्षायोपशमिक भाव, क्षायिकसम्यग्दृष्टि देवोंके क्षायिक भाव और उपशमसम्यग्दृष्टि देवोंके औपशमिक भाव होता है।
शंका--अनुदिश आदि विमानोंमें मिथ्यादृष्टि जीवोंका अभाव होते हुए उपशमसम्यग्दृष्टियोंका होना कैसे सम्भव है, क्योंकि, कारणके अभाव होनेपर कार्यकी उत्पत्तिका विरोध है ?
समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, उपशमसम्यक्त्वके साथ उपशमश्रेणीपर चढ़ते और उतरते हुए मरणकर देवोंमें उत्पन्न होनेवाले संयतोंके उपशमसम्यक्त्व पाया जाता है।
शंका-सूत्रमें तीन स्थानोंपर प्रयुक्त हुआ 'वा' शब्द अनर्थक है, क्योंकि, एक ही 'वा' शब्दसे इष्ट कार्यकी सिद्धि हो जाती है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, मंदबुद्धि शिष्योंके अनुग्रहार्थ सूत्रमें तीन स्थानोंपर 'वा'शब्दका प्रयोग किया गया है।
किन्तु उक्त असंयतसम्यग्दृष्टि देवोंका असंयतत्व औदयिकभावसे है ॥ २९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
___ इस प्रकार गतिमार्गणा समाप्त हुई। इन्द्रियमार्गणाके अनुवादसे पंचेन्द्रियपर्याप्तकोंमें मिथ्यादृष्टि से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ३०॥
१ इन्द्रियानुवादेन एकेन्द्रियविकलेन्द्रियाणामौदयिको भावः । पंचेन्द्रियेषु मिथ्यादृष्टयाचयोगकेवल्यन्तानां सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org