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________________ १४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १, ६, ११. होदूण सव्चलहुं पुणो वि पमत्तो जादो । लद्धमंतोमुहुत्तं जहण्णंतरं पमत्तस्स । अप्पमत्तस्स उच्चदे - एगो अप्पमत्तो उवसमसेढीमारुहिय पडिणियत्तो अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं जहण्णमप्पमत्तस्स | हेट्टिमगुणेसु किण्ण अंतराविदो ? ण उवसमसेढी सव्यगुणड्डाणवाणाहिंतो मग गुणट्टाणद्धाए संखेज्जगुणत्तादो । उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियङ्कं देणं ॥ ११ ॥ गुणट्ठाणपरिवाडीए उक्कस्संतरपरूवणा कीरदे- एक्केण अणादियमिच्छादिट्टिणा तिण्णि करणाणि काढूण पढमसम्मत्तं गेण्हंतेण अणंतो संसारो छिंदिदूण गहिदसम्मत्तपढमसमए अद्धपोग्गलपरियमेत्तो कदो । उवसमसम्मत्तेण अंतोमुहुत्तमच्छिय ( १ ) छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गंतूगंतरिदो । मिच्छत्तेगद्ध योग्गल परियÎ भमिय अपच्छिमे भवे संजमं संजमा संजमं वा गंतूग कदकर णिज्जो होदूण अंतोमुहुत्ता बसेसे अब प्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक प्रमत्तसंयत जीव, अप्रमत्तसंयत होकर सर्वलघु कालके पश्चात् फिर भी प्रमत्तसंयत होगया । इस प्रकारसे प्रमत्तसंयतका अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण जघन्य अन्तर प्राप्त हुआ अब अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक अप्रमत्तसंयत जीव उपशमश्रेणिपर चढ़कर पुनः लौटा और अप्रमत्तसंयत होगया । इस प्रकारसे अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण जघन्य अन्तर अप्रमत्तसंयतका उपलब्ध हुआ । शंका- नीचेके असंयतादि गुणस्थानों में भेजकर अप्रमत्तसंयतका जघन्य अन्तर क्यों नहीं बताया ? समाधान- नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणीके सभी गुणस्थानोंके कार्लोसे प्रमत्तादि नीचे एक गुणस्थानका काल भी संख्यातगुणा होता है । उक्त असंयतादि चारों गुणस्थानोंका उत्कृष्ट अन्तरकाल कुछ कम अर्धपुगलपरिवर्तनप्रमाण है ॥ ११ ॥ अब गुणस्थान - परिपाटीसे उत्कृष्ट अन्तरकी प्ररूपणा करते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों करण करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको ग्रहण करते हुए अनन्त संसार छेदकर सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें वह संसार अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया । पुनः उपशमसम्यक्त्वके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रह कर (१) उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जाने पर सासादन गुणस्थानको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ । पुनः मिथ्यात्वके साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें संयमको, अथवा संयमासंयमको प्राप्त होकर, कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी होकर अन्तर्मुहूर्तकाल प्रमाण संसारके अवशेष रह जाने पर परिणामोंके निमित्तसे असंयतसम्यग्दृष्टि १ उत्कर्षेणार्द्ध पुद्गल परिवर्तो देशोनः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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