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________________ १, ६, ११.] अंतराणुगमे असंजदसम्मादिद्विआदि-अंतरपरूवणं संसारे परिणामपच्चएण असंजदसम्मादिट्ठी जादो । लद्धमंतर (२)। पुणो अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवज्जिय (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (४) खवगसेडीपाओग्गविसोहीए विसुज्झिय (५) अपुरो (६) अणियट्टी (७) सुहुमो (८) खीणो (९) सजोगी (१०) अजोगी (११) होदण परिणउदो । एवमेक्कारसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमसंजदसम्मादिट्ठीणमुक्कस्संतरं होदि । संजदासंजदस्स उच्चदे- एक्केण अणादियमिच्छादिहिणा तिण्णि करणाणि कादण गहिदसम्मत्तपढमसमए सम्मत्तगुणेण अणंतो संसारो छिण्णो अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो। सम्मत्तेण सह गहिदसंजमासंजमेण अंतोमुहुत्तमच्छिय छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गदो (१) अंतरिदो मिच्छत्तेण अद्धपोग्गलपरियट्टं परिभामिय अपच्छिमे भवे सासंजमं सम्मत्तं संजमं वा पडिवज्जिय कदकरणिज्जो होदूण परिणामपच्चएण संजमासंजमं पडिवण्णो (२)। लद्धमंतरं । अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवन्जिय (३) पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण (४) खवगसेढीपाओग्गविसोहीए विसुज्झिय (५) अपुल्यो (६) अणियट्टी (७) सुहुमो (८) खीणकसाओ (९) सजोगी (१०) होगया । इस प्रकार सूत्रोक्त अन्तरकाल प्राप्त हुआ (२) । पुनः अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त होकर (३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्त्रों परावर्तनोंको करके (४) क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर (५) अपूर्वकरणसंयत (६) अनिवृत्तिकरणसंयत (७) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (८) क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ (९) सयोगिकेवली (१०) और अयोगिकेवली (११) होकर निर्वाणको प्राप्त हो गया। इस प्रकारसे इन ग्यारह अन्तर्मुहूर्तीसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल असंयतसम्यग्दृष्टि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों करण करके सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें सम्यक्त्वगुणके द्वारा अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण किया। पुनः सम्यक्त्वके साथ ही ग्रहण किये गये संयमासंयमके साथ अन्तर्मुहूर्तकाल रहकर, उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहजाने पर सासादनगुणस्थानको प्राप्त हो (१) अन्तरको प्राप्त हो गया, और मिथ्यात्वके साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें असंयमसहित सम्यक्त्वको, अथवा संयमको प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी हो, परिणामोंके निमित्तसे संयमासंयमको प्राप्त हुआ (२)। इस प्रकारसे इस गुणस्थानका अन्तर प्राप्त होगया। पुनः अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त होकर (३) प्रमत्त-अप्रमत्त गुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परावर्तनोंको करके (४) क्षपकश्रेणीके योग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होकर (५) अपूर्वकरण (६) अनिवृत्तिकरण (७) सूक्ष्मसाम्पराय (८) क्षीणकषाय (९) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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