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________________ १६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ११. अजोगी (११) होदूण परिणव्वुदो। एवमेकारसेहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमुक्कस्संत्तरं संजदासंजदस्स होदि। पमत्तस्स उच्चदे- एकेण अणादियमिच्छादिविणा तिण्णि करणाणि कादृण उवसमसम्मत्तं संजमं च जुगवं पडिवज्जतेण अणंतो संसारो छिंदिओ, अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तो कदो । अंतोमुहुत्तमच्छिय (१) पमत्तो जादो (२)। आदी दिट्ठा । छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्वाए आसाणं गंतूगंतरिय मिच्छत्तेगद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिय अपच्छिमे भवे सासंजमसम्मत्तं संजमामंजमं वा पडिवज्जिय कदकरणिज्जो होऊण अप्पमत्तभावेण संजमं पडिवज्जिय पमत्तो जादो (३)। लद्धमंतरं । तदो खवगसेढीपाओग्गो अप्पमत्तो जादो ( ४ ) । पुणो अपुरो (५) अणियट्टी (६) सुहुमो (७) खीणकसाओ (८) सजोगी (९) अजोगी (१०) होदूण णिव्याणं गदो। एवं दसहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट पमत्तस्सुक्कस्संतरं होदि । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्केण अणादियमिच्छादिविणा तिण्णि वि करणाणि करिय उवसमसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्ण छेत्तूण अणंतो संसारो अद्धपोग्गल सयोगिकेवली (१०) और अयोगिकेवली (११) होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे इन ग्यारह अन्तर्मुहूतोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब प्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्व और संयमको एक साथ प्राप्त होते हुए अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र किया। पुनः उस अवस्थामें अन्तर्मुहूर्त रह कर (१) प्रमत्तसंयत हुआ (२)। इस प्रकारसे यह अर्धपुद्गलपरिवर्तनकी आदि दृष्टिगोचर हुई । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहजाने पर सासादन गुणस्थानको जाकर अन्तरको प्राप्त होकर मिथ्यात्वके साथ अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिभ्रमण कर अन्तिम भवमें असंयमसहित सम्यक्त्वको, अथवा संयमासंयमको प्राप्त होकर कृतकृत्य वेदकसम्यक्त्वी हो अप्रमत्तभावके साथ संयमको प्राप्त होकर प्रमत्तसंयत हो गया (३)। इस प्रकारसे इस गुणस्थानका अन्तर प्राप्त होगया । पश्चात् क्षपकश्रेणीके प्रायोग्य अप्रमत्तसंयत हुआ (४)। पुनः अपूर्वकरणसंयत (५) अनिवृत्तिकरणसंयत (६) सूक्ष्मसाम्परायसंयत (७) क्षीणकषायवीतरागछद्मस्थ (८) सयोगिकेवली (९) और अयोगिकेवली (१०) होकर निर्वाणको प्राप्त हुआ। इस प्रकारसे दश अन्तर्मुहूर्तोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। अब अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीवने तीनों ही करण करके उपशमसम्यक्त्वको और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानको एक साथ प्राप्त होकर सम्यक्त्व ग्रहण करनेके प्रथम समयमें ही अनन्त संसार छेदकर अर्धपुद्गलपरिवर्तन मात्र Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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