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छक्खंडागमे जीवाणं
उक्कस्सेण वासं सादिरेयं ॥ २०५ ॥
तं जहा - पुरिसवेदेण अपुव्त्रगुणं पडिवण्णा सव्वे जीवा उवरिमगुणं गदा । अंतरिदमपुत्रगुणट्ठाणं । पुणो छमासेसु अदिक्कंतेसु सच्चे इत्थिवेदेण चैव खवगसेढिमारूढा । पुणो चत्तारि वा पंच वा मासे अंतरिदूण खवगसेटिं चढमाणा गवुंसयवेदोदएण चढिदा । पुणो वि एक्क-दो मासे अंतरितॄण इत्थिवेदेण चढिदा । एवं संखेजवारमित्थि - णवुंसयवेदोदएण चैव खवगसेटिं चढाविय पच्छा पुरिसवेदोदएण खवगसेटिं चढिदे वासं सादिरेयमंतरं होदि । कुदो ? निरंतरं छम्मासंतरस्स असंभवादो । एवमणियस्सि वित्तव्धं । केसु वि सुत्तपोत्थए पुरिसवेदस्संतरं छम्मासा ।
एगजीवं पच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ २०६ ॥
कुदो ? खवगाणं पडिणियत्तीए असंभवा ।
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णउंसयवेदसु मिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पञ्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २०७ ॥
[ १, ६, २०५.
उक्त दोनों क्षपकोंका उत्कृष्ट अन्तर साधिक एक वर्ष है ।। २०५ ।।
जैसे - पुरुषवेदके द्वारा अपूर्वकरणक्षपक गुणस्थानको प्राप्त हुए सभी जीव ऊपरके गुणस्थानों को चले गए और अपूर्वकरणगुणस्थान अन्तरको प्राप्त होगया । पुनः छह मास व्यतीत हो जाने पर सभी जीव स्त्रीवेदके द्वारा ही क्षपकश्रेणी पर आरूढ हुए । पुनः चार या पांच मासका अन्तर करके नपुंसकवेदके उदयसे कुछ जीव क्षपकश्रेणीपर चढ़े । पुनः एक दो मास अन्तरकर कुछ जीव स्त्रीवेदके द्वारा क्षपकश्रेणीपर चढ़े । इस प्रकार संख्यात वार स्त्रीवेद और नपुंसक वेदके उदयसे ही क्षपकश्रेणीपर चढ़ा करके पीछे पुरुषवेदके उदयसे क्षपकश्रेणी चढ़नेपर साधिक वर्षप्रमाण अन्तर हो जाता है, क्योंकि, निरन्तर छह मासके अन्तर से अधिक अन्तरका होना असम्भव है। इसी प्रकार पुरुषवेदी अनिवृत्तिकरणक्षपकका भी अन्तर कहना चाहिए। कितनी ही सूत्रपोथियोंमें पुरुषवेदका उत्कृष्ट अन्तर छह मास पाया जाता है ।
दोनों क्षपकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २०६ ॥ क्योंकि, क्षपकोंका पुनः लौटना असम्भव है ।
नपुंसकवेदियों में मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना traint अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २०७ ॥
१ उत्कर्षेण संवत्सरः सातिरेकः । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ नपुंसकवेदेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८.
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