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________________ १, ६, २१०. ] अंतरानुगमे सयवेदि - अंतर परूवणं सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ २०८ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि देसूणाणि ॥ २०९ ॥ तं जधा - एक्को मिच्छादिट्ठी अट्ठावीससंतकम्मिओ सत्तमपुढवीए उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्ध ( ३ ) सम्मत्तं पडिवज्जिय अंतरिदो | अवसाणे मिच्छत्तं गंतूग ( ४ ) आउअं बंधिय ( ५ ) विस्समिय ( ६ ) मदो तिरिक्खो जादो । एवं छहि अंतोमुहुतेहि ऊणाणि तेत्तीस सागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । सासणसम्मादिट्टि पहुडि जाव अणियट्टिउवसामिदो त्ति मूलोघ ॥ २१० ॥ यह सूत्र सुगम है | एक जीवकी अपेक्षा नपुंसक वेदी मिध्यादृष्टियोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २०८ ॥ [ १०७ यह सूत्र भी सुगम है । एक जीवकी अपेक्षा नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम तीस सागरोपम है ॥ २०९ ॥ Jain Education International जैसे - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक मिथ्यादृष्टि जीव सातवीं पृथिवीमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो ( ३ ) सम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ । आयुके अन्तमें मिथ्यात्वको प्राप्त होकर (४) आयुको बांध ( ५ ) विश्राम ले ( ६ ) मरा और तिर्यच हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तेतीस सागरोपमकाल नपुंसकवेदी मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है । सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर अनिवृत्तिकरण उपशामक गुणस्थान तक नपुंसकवेदी जीवोंका अन्तर मूलोधके समान है ।। २१० ॥ १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. २ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. ३ सासादन सम्यग्दृष्ट्याद्यनिवृत्त्युपशम कान्तानां सामान्योक्तम् । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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