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________________ १, ८, ३२.] . अप्पाबहुगाणुगमे णेरइय-अप्पाबहुगपरूवणं [२१३ बूचिअंगुलविदियवग्गमूले भागे हिदे लद्धम्मि जत्तियाणि स्वाणि तत्तियाणि अंगुलपढमवग्गमूलाणि । कुदो? दव्वविक्खंभसूची घणंगुलविदियवग्गमूलमत्ता, असंजदसम्मादिट्ठीहि तम्मि घणंगुलविदियवग्गमूले ओवट्टिदे असंखेज्जाणि सूचिअंगुलपढमवग्गमूलाणि होति त्ति तंत-जुत्तिसिद्धीदो। तत्थ जेत्तियाणि रूवाणि तेत्तियमेत्ता सेडीओ गुणगारो होदि। असंजदसम्माइडिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥ ३१॥ कुदो ? अंतोमुहुत्तमेत्तुवसमसम्मत्तद्धाए उवक्कमणकालेण आवलियाए असंखेजदिभागेण संचिदत्तादो उच्चमाणसव्वसम्मादिहिरासीहिंतो उवसमसम्मादिट्ठी थोवा होति । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ ३२ ॥ कुदो ? सहावदो चेव उवसमसम्मादिट्ठीहिंतो असंखेज्जगुणसरूवेण खइयसम्माइट्ठीणमणाइणिहणमवट्ठाणादो, संखेज्जपलिदोवमभंतरे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालेण संचिदत्तादो असंखेज्जगुणा ति वुत्तं होदि । एत्थतणखइयसम्मादिट्ठीणं भागहारो असंखेज्जावलियाओ । कुदो ? ओघासंजदसम्मादिट्ठीहितो असंखेज्ज ......................... भाजित करने पर लब्धमे जितना प्रमाण आवे, उतने सूच्यंगुलके प्रथम वर्गमूल गुणकारविष्कंभसूचीमें होते हैं, क्योंकि, द्रव्यविष्कंभसूची घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलमात्र है। इसलिए असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे उस घनांगुलके द्वितीय वर्गमूलके अपवर्तित कर देनेपर सूच्यंगुलके असंख्यात प्रथम वर्गमूल होते हैं, यह प्रकार आगम और युक्तिसे सिद्ध है । अतएव वहांपर जितनी संख्या हो तन्मात्र जगश्रेणियां यहांपर गुणकार है। नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि सबसे कम हैं ॥३१॥ क्योंकि, अन्तर्मुहूर्तमात्र उपशमसम्यक्त्वके कालमें आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण उपक्रमणकाल द्वारा संचित होनेके कारण आगे कहे जानेवाले सर्व प्रकारके सम्यग्दृष्टियोंकी राशियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि जीव थोड़े होते हैं। नारकियोंमें असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ॥ ३२ ॥ ___क्योंकि, स्वभावसे ही उपशमसम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका असंख्यातगुणितरूपसे अनादिनिधन अवस्थान है, जिसका तात्पर्य यह है कि संख्यात पल्योपमके भीतर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल द्वारा संचित होनेसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणित हैं । यहां नारकियों में जो क्षायिकसम्यग्दृष्टि हैं उनके प्रमाणके लानेके लिए भागहारका प्रमाण असंख्यात आवलियां हैं, क्योंकि, ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे असंख्यातगुणित हीन ओघ क्षायिकसम्यग्दृष्टि Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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