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________________ १, ८, १०४.] अप्पाबहुगाणुगमे तसकाइय-अप्पाबहुगपरूवणं [२८९ सत्थाण-सव्वपरत्थाणअप्पाबहुआणि एत्थ किण्ण परूविदाणि १ ण, परत्थाणादो चेव तेसिं दोण्हमवगमा । एवं इंदियमग्गणा सम्मत्ता। कायाणुवादेण तसकाइय-तसकाइयपज्जत्तएसु ओघं । णवरि मिच्छादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १०४ ॥ एदस्सत्थो- एगगुणट्ठाण-सेसकाएसु अप्पाबहुअं णत्थि त्ति जाणावणटुं तसकाइयतसकाइयपज्जत्तगहणं कदं । एदेसु दोसु वि अप्पाबहुअं जधा ओघम्मि कदं, तधा कादव्वं, विसेसाभावा । णवरि सग-सगअसंजदसम्मादिट्ठीहिंतो मिच्छादिट्ठीणं अणंतगुणत्ते पत्ते तप्पडिसेहट्ठमसंखेजगुणा त्ति उत्तं, तसकाइय-तसकाइयपज्जत्ताणमाणंतियाभावादो । को गुणगारो ? पदरस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेजाओ सेडीओ सेडीए असंखेज्जदि शंका--स्वस्थान-अल्पबहुत्व और सर्वपरस्थान-अल्पबहुत्व यहांपर क्यों नहीं कहे? समाधान-नहीं, क्योंकि, परस्थान-अल्पबहुत्वसे ही उन दोनों प्रकारके अल्पबहुत्वोंका ज्ञान हो जाता है। इस प्रकार इन्द्रियमार्गणा समाप्त हुई। कायमार्गणाके अनुवादसे त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तकोंमें अल्पबहुत्व ओघके समान है। केवल विशेषता यह है कि असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १०४॥ इस सूत्रका अर्थ कहते हैं- एकमात्र मिथ्यादृष्टि गुणस्थानवाले शेष स्थावरकायिक और त्रसकायिक लब्ध्यपर्याप्तकों में अल्पबहत्व नहीं पाया जाता है, करानेके लिए सूत्रमें त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तक पदका ग्रहण किया है। जिस प्रकार ओघप्ररूपणामें अल्पवहुत्व कह आए हैं, उसी प्रकार त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तक, इन दोनोंमें भी अल्पवहुत्वका कथन करना चाहिए, क्योंकि, ओघअल्पबहुत्वसे इनके अल्पबहुत्वमें कोई विशेषता नहीं है। केवल अपने अपने असंयतसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाणसे मिथ्यादृष्टियोंके प्रमाणके अनन्तगुणत्व प्राप्त होनेपर उसके प्रतिषेध करनेके लिए असंयतसम्यग्दृष्टियोंसे मिथ्यादृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं, ऐसा कहा है, क्योंकि, त्रसकायिक और त्रसकायिक-पर्याप्तक जीवोंका प्रमाण अनन्त नहीं है । गुणकार क्या है ? जगप्रतरका असंख्यातवां भाग गुणकार है, जो जगश्रेणीके असं १ कायानुवादेन स्थावरकायेषु गुणस्थानभेदाभावादल्पबहुत्वाभावः। कायं प्रत्युच्यते । सर्वतस्तेजस्कायिका अल्पाः । ततो बहवः पृथिवीकायिकाः। ततोऽप्कायिकाः। ततो वातकायिकाः । सर्वतोऽनन्तगुणा वनस्पतयः । वसकायिकानां पचेन्द्रियवत् । स. सि. १, ८.। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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