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२९.] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ८, १०५. भागमेत्ताओ। को पडिभागो १ घणंगुलस्स असंखेज्जदिभागो, असंखेज्जाणि पदरंगुलाणि । सेसं सुगम।
एवं कायमग्गणा समत्ता । जोगाणुवादेण पंचमणजोगि-पंचवचिजोगि-कायजोगि-ओरालियकायजोगीसु तीसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥१०५॥
एदेहि उत्तसव्वजोगेहि सह उवसमसेढिं चढ़ताणं वुक्कस्सेण चउवण्णत्तमत्थि त्ति तुल्लत्तं परूविदं । उवरिमगुणट्ठाणजीवेहितो ऊणा त्ति थोवा ति परूविदा । एदेसि वारसण्हमप्पाबहुआणं तिसु अद्धासु द्विदउवसमगा मूलपदं जादा ।
उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था तेत्तिया चेव ॥ १०६॥ सुगममेदं । खवा संखेज्जगुणा ॥ १०७ ॥
अदुत्तरसदपरिमाणत्तादो । ख्यातवें भागमात्र असंख्यात जगश्रेणीप्रमाण है। प्रतिभाग क्या है ? घनांगुलका असंख्यातवां भाग प्रतिभाग है, जो असंख्यात प्रतरांगुलप्रमाण है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इस प्रकार कायमार्गणा समाप्त हुई।। योगमार्गणाके अनुवादसे पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगियोंमें अपूर्वकरण आदि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा परस्पर तुल्य और अल्प हैं ॥ १०५॥
इन सूत्रोक्त सर्व योगोंके साथ उपशमश्रेणी पर चढ़नेवाले उपशामक जीवोंकी संख्या उत्कर्षसे चौपन होती है, इसलिए उनकी तुल्यता कही है। तथा उपरिम अर्थात् क्षपकश्रेणीसम्बन्धी गुणस्थानवी जीवोंसे कम होते हैं, इसलिए उन्हें अल्प कहा है। इस प्रकार पांचों मनोयोगी, पांचों वचनयोगी, काययोगी और औदारिककाययोगी, इन बारह अल्पबहुत्वोंका प्रमाण लानेके लिए अपूर्वकरण आदि तीनों गुणस्थानोंमें स्थित उपशामक मूलपद अर्थात् अल्पबहुत्वके आधार हुए।
उक्त बारह योगवाले उपशान्तकषायवीतरागछद्मस्थ जीव पूर्वोक्त प्रमाण ही हैं ॥१०६॥
यह सूत्र सुगम है।
उक्त बारह योगवाले उपशान्तकषायवीतरागछमस्थोंसे क्षपक जीव संख्यातगुणित हैं ॥ १०७॥
क्योंकि, क्षपकोंकी संख्याका प्रमाण एक सौ आठ है । १योगानुवादेन वाङ्मानसयोगिनां पंचेन्द्रियवत् । काययोगिनां सामान्यवत् । स.सि. १,८.
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