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छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ७, ४८. लिम्हि जोगुवलंमा। णो अघादिकम्मोदयजणिदो वि, संते वि अघादिकम्मोदए अजोगिम्हि जोगाणुवलंभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा । कम्मइयसरीरं ण पोग्गलविवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास-मंठाणागमणादीणमणुवलंभा। तदुप्पाइदो जोगो होदु चे ण, कम्मइयसरीरं पि पोग्गलविवाई चेव, सव्वकम्माणमासयत्तादो । कम्मइओदयविणट्ठसमए चेव जोगविणासदसणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अघाइकम्मोदयविणासाणंतरं विणस्संतभवियत्तस्स पारिणामियस्स ओदइयत्तप्पसंगा । तदो सिद्ध जोगस्स पारिणामियत्तं । अधवा ओदइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदयविणासाणंतरं जोगविणासुवलंभा। ण च भवियत्तेण विउवचारो, कम्मसंबंधविरोहिणो तस्स कम्मजणिदत्तविरोहा । सेसं सुगमं ।
एवं णाणमग्गणा समत्ता ।। क्योंकि, घातिकर्मोदयके नष्ट होने पर भी सयोगिकेवलीमें योगका सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदय-जनित भी है, क्योंकि, अघातिकर्मोदयके रहने पर भी अयोगिकेबली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदय-जनित भी नहीं है, क्योंकि, पुद्गलविपाकी प्रकृतियोंके जीव-परिस्पंदनका कारण होनेमें विरोध है।
शंका-कार्मणशरीर पुद्गलविपाकी नहीं है, क्योंकि, उससे पुद्गलोंके वर्ण, रस, गन्ध, स्पर्श और संस्थान आदिका आगमन आदि नहीं पाया जाता है । इसलिए योगको कार्मणशरीरसे उत्पन्न होनेवाला मान लेना चाहिए?
समाधान नहीं, क्योंकि, सर्व कौका आश्रय होनेसे कार्मणशरीर भी पुद्गलविपाकी ही है । इसका कारण यह है कि वह सर्व कमौका आश्रय या आधार है।
शंका-कार्मणशरीरके उदय विनष्ट होनेके समयमें ही योगका विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मणशरीर-जनित है, ऐसा मानना चाहिए ?
समाधान नहीं, क्योंकि, यदि ऐसा माना जाय तो अघातिकर्मोदयके विनाश होनेके अनन्तर ही विनष्ट होनेवाले पारिणामिक भव्यत्वभावके भी औदयिकपनेका प्रसंग प्राप्त होगा।
इस प्रकार उपर्युक्त विवेचनसे योगके पारिणामिकपना सिद्ध हुआ। अथवा, 'योग' यह औदयिकभाव है, क्योंकि, शरीरनामकर्मके उदयका विनाश होनेके पश्चात् ही योगका विनाश पाया जाता है । और, ऐसा माननेपर भव्यत्वभावके साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि, कर्मसम्बन्धके विरोधी पारिणामिकभावकी कर्मसे उत्पत्ति मानने में विरोध आता है। शेष सूत्रार्थ सुगम है।
इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई। निरुपभोगमन्त्यम् । त. सू. २,४४। अन्ते भवमन्त्यम् । किं तत् ? कार्मणम् । इन्द्रियप्रणालिकया दादीनामुपलब्धिरुपमोगः । तदभावानिरंपभोगम् । स. सि. २, ४४.
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