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________________ भावागमे संजदभाव - परूवणं संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहुडि जाव अजोगिकेवली १, ७, ५२. ] ओघं ॥ ४९ ॥ सुगममेदं । सामाइयछेदोवडावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तसंजद पहुडि जाव अणियट्टि त्ति ओघं ॥ ५० ॥ एदं पि सुगमं । परिहारसुद्धिसंजदेसु पमत्त अप्पमत्तसंजदा ओघं ॥ ५१ ॥ कुदो ? खओवसमियं भावं पडि विसेसाभावा । पमत्तापमत्त संजदेसु अण्णे वि भावा संति, एत्थ ते किष्ण परूविदा ? ण, तेसिं पमत्तापमत्तसंजमत्ताभावा । पमत्तापत्तसंजदाणं भावे पुच्छिदेसु ण हि सम्मत्तादिभावाणं परूवणा णाओववण्णेत्ति' । सुहुमसांपराइयसुद्धिसंजदेसु सुहुमसांपराइया उवसमा खवा ओघं ॥ ५२ ॥ संयममार्गणा के अनुवाद से संयतों में प्रमत्तसंयत से लेकर अयोगिकेवली गुणस्थान तक भाव ओघ के समान हैं ॥ ४९ ॥ यह सूत्र सुगम है। सामायिक और छेदोपस्थापना शुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयतसे लेकर अनिवृत्तिकरण गुणस्थान तक भाव ओघके समान हैं ॥ ५० ॥ यह सूत्र भी सुगम है । परिहारशुद्धिसंयतों में प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत ये भाव ओघके समान हैं ॥ ५१ ॥ २२७ क्योंकि, क्षायोपशमिक भावके प्रति दोनोंमें कोई विशेषता नहीं है । शंका - प्रमत्त और अप्रमत्त संयत जीवोंमें अन्य भाव भी होते यहांपर वे क्यों नहीं कहे ? समाधान- नहीं, क्योंकि, वे भाव प्रमत्त और अप्रमत्त संयम होनेके कारण नहीं हैं। दूसरी बात यह है कि प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंके भाव पूछने पर सम्यक्त्व आदि भावकी प्ररूपणा करना न्याय संगत नहीं है । सूक्ष्मसाम्परायिकशुद्धिसंयतों में सूक्ष्मसाम्परायिक उपशामक और क्षपक भाव ओके समान हैं ॥ ५२ ॥ Jain Education International १ संयमानुवादेन सर्वेषां संयतानां xxx सामान्यवत् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' णाओववण्णो ति ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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