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________________ १६२ ] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं दाणि दो वित्ताणि सुगमाणि । वेद सम्मादिट्ठीसु असंजदसम्मादिट्टीणं सम्मादिट्टिभंगों ॥ ३४९ ॥ सम्मत्तमग्गणाए ओघम्हि जधा असंजदसम्मादिट्ठीणमंतरं परूविदं तथा एत्थ विविदव्वं । [ १, ६, ३४९. संजदा संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३५० ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोहुतं ॥ ३५१ ।। एदं पि सुगमं । उक्कस्सेण छावट्टि सागरोवमाणि देणाणि ॥ ३५२ ॥ ये दोनों ही सूत्र सुगम हैं । वेदकसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर सम्यग्दृष्टिसामान्यके समान है ॥ ३४९ ॥ जिस प्रकार से सम्यक्त्वमार्गणाके ओघ असंयतसम्यग्दृष्टियोंका अन्तर कहा है, उसी प्रकारसे यहां पर भी कहना चाहिए । वेदकसम्यग्दृष्टियोंमें संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३५० ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३५१ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम छ्यासठ सागरोपम ॥ ३५२ ॥ Jain Education International १ क्षायोपशमिकसम्यग्दृष्टिष्वसंयत सम्यग्दृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । एंकजीवं प्रति जघन्येनान्तमुहूर्तः । उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना । स. सि. १, ८. २ संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि देशोनानि । स. सि. १,८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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