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________________ १, ६, ३८.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [ ३३ पलिदोवमाणि मिच्छत्तुक्कस्संतरं होदि । सासणसम्मादिटिप्पहुडि जाव संजदासजदा त्ति ओघं ॥३८॥ कुदो ? ओघचदुगुणट्ठाणणाणेगजीव-जहण्णुक्कस्संतरकालेहितो तिरिक्खगदिचदुगुणड्डाणणाणेगजीव-जहण्णुक्कस्संतरकालाणं भेदाभावा । तं जहा- सासणसम्मादिट्ठीणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । ___एत्थ अंतरमाहप्पजाणावणट्ठमप्पाबहुगं उच्चदे- सव्वत्थोवा सासणसम्मादिहिरासी । तस्सेव कालो णाणाजीवगदो असंखेजगुणो । तस्सेव अंतरमसंखेजगुणं । एदमप्पाबहुगं ओघादिसव्वमग्गणासु सासणाणं पउंजिदव्वं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । एदस्स कालस्स साहणउवएसो उच्चदे । तं जहा- तसेसु अच्छिदूण जेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणि उव्वेल्लिदाणि सो सागरोवमपुधत्तेण सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तहिदिसंतकम्मेण उवसमसम्मत्तं पडिवज्जदि। एदम्हादो उवरिमासु हिदीसु जदि सम्मत्तं गेण्हदि, तो णिच्छएण वेदगसम्मत्तमेव गेण्हदि । अध एइंदिएसु जेण सम्मत्तपल्योपमकाल मिथ्यात्वका उत्कृष्ट अन्तर होता है। तिर्यचोंमें सासादनसम्यग्दृष्टिसे लेकर संयतासंयत गुणस्थान तकका अन्तर ओघके समान है ॥ ३८॥ क्योंकि, ओघके इन चार गुणस्थानोंसम्बन्धी नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालोंसे तिर्यंचगतिसम्बन्धी इन्हीं चार गुणस्थानोसम्बन्धी नाना और एक जीवके जघन्य और उत्कृष्ट अन्तरकालोंका कोई भेद नहीं है। वह इस प्रकार है- सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। __ यहांपर अन्तरके माहात्म्यको बतलानेके लिए अल्पबहुत्व कहते हैं- सासादनसम्यग्दृष्टिराशि सबसे कम है। नानाजीवगत उसीका काल असंख्यातगुणा है । और उसीका अन्तर, कालसे असंख्यातगुणा है । यह अल्पबहुत्व ओघादि सभी मार्गणाओंमें सासादनसम्यग्दृष्टियोंका कहना चाहिए। सासादनसम्यग्दृष्टि जीवोंका अन्तर एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे पल्योपमका असंख्यातवां भाग है। इस कालके साधक उपदेशको कहते हैं। वह इस प्रकार है- त्रस जीवोंमें रहकर जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्व, इन दो प्रकृतियोंका उद्वेलन किया है, वह जीव सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी स्थितिके सत्त्वरू सागरोपमपृथक्त्वके पश्चात् उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है। यदि इससे ऊपरकी स्थिति रहनेपर सम्यक्त्वको ग्रहण करता है, तो निश्चयसे वेदकसम्यक्त्वको ही प्राप्त होता है । और एकेन्द्रियोंमें जा करके जिसने सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वकी उद्वेलना ... १ सासादनसम्यग्दृष्टयादीनां चतुर्णा सामान्योक्तमन्तरम् । स. सि. १, ८.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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