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________________ ३४ ] छक्खंडागमे जीवद्वाणं [ १,६, ३८. सम्मामिच्छत्ताणि उब्वेल्लिदाणि, सो पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणसागरोवमेते सम्म सम्मामिच्छत्ताणं द्विदिसंतकम्मे सेसे तसेसुववज्जिय उवसमसम्मत्तं पडिबज्जदि । एदाहि विदीहि ऊणसेसकम्मट्ठिदिउव्वेल्लणकालो जेण पलिदोवमस्स असंखेजदिभागो तेण सासणेगजीवजहणंतरं पि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेचं होदि । उकस्सेण अद्धपोग्गलपरियङ्कं देणं । णवरि विसेसो एत्थ अत्थि तं भणिस्सामोएको तिरिक्खो अणादियामिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि करिय सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए संसारमर्णतं छिंदिय पोग्गलपरियदृद्धं काऊण उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो आसाणं गदो मिच्छत्तं गतूणंतरिय ( १ ) अद्धपोग्गलपरियङ्कं परिभमिय दुरिमे भवे पंचिदियतिरिक्खेसु उववज्जिय मणुसेसु आउअं बंधिय तिण्णि करणाणि करिय उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो । उवसमसम्मत्तद्धाए मणुसग दिपाओग्गआवलियासंखेज्जदिभागावसेसाए आसाणं गदो । लद्धमंतरं । आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्त सासणद्धमच्छिय मदो मणुसो जादो सच मासे गब्भे अच्छिदूणणिक्खतो सत्त वस्त्राणि अंतोमुहुत्तन्भहियपंचमासे च गमेदूण (२) वेदसम्मतं पडवण्णो ( ३ ) अनंताणुबंधी विसंजोइय ( ४ ) दंसणमोहणीयं खविय (५) अप्पमत्तो ( ६ ) पमत्तो (७) पुणो अप्पमत्तो ( ८ ) पुणो अपुव्वादिछहि अंतोमुहुत्नेहि की है, वह पल्योपमके असंख्यातवें भागसे कम सागरोपमकालमात्र सम्यक्त्व और सम्यग्मिथ्यात्वका स्थितिसत्त्व अवशेष रहनेपर त्रस जीवोंमें उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त होता है । इन स्थितिओंसे कम शेष कर्मस्थिति उद्वेलनकाल चूंकि पल्योपमके असंख्यातवें भाग है, इसलिए सासादन गुणस्थानका एकजीवसम्बन्धी जघन्य अन्तर भी पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र ही होता है । 32 सासादन गुणस्थानका एक जीवसम्बन्धी उत्कृष्ट अन्तर देशोन अर्धपुद्गल - परिवर्तनप्रमाण है । पर यहां जो विशेष बात है, उसे कहते हैं- अनादि मिथ्यादृष्टि एक तिर्यच तीनों करणोंको करके सम्यक्त्वको प्राप्त होनेके प्रथम समय में अनन्त संसारको छेदकर और अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और सासादन गुणस्थानको गया । पुनः मिथ्यात्वको जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर (१) अर्धपुद्गलपरिवर्तन परिभ्रमण करके द्विचरम भवमें पंचेन्द्रिय तिर्यचों में उत्पन्न होकर और मनुष्योंमें आयुको बांधकर, तीनों करणोंको करके उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ । पुनः उपशमसम्यक्त्वके कालमें मनुष्यगतिके योग्य आवलीके असंख्यातवें भागमात्र कालके अवशेष रहनेपर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ । इस प्रकारसे उक्त अन्तर लब्ध हो गया । आवलीके असंख्यातवें भागमात्र काल सासादम गुणस्थानमें रहकर मरा और मनुष्य होगया। यहांपर सात मास गर्भमें रहकर निकला तथा सात वर्ष और अन्तर्मुहूर्तसे अधिक पांच मास बिताकर (२) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (३) । पुनः अनन्तानुबन्धीकषायका विसंयोजन करके (४) दर्शनमोहनीयका क्षयकर (५) अप्रमत्त (६) प्रमत्त (७) पुनः अप्रमत्त (८) हो, पुनः अपूर्व Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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