SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 125
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ६, ३८.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं [३५ (१४) णिव्याणं गदो । एवं चोद्दसअंतोमुहुत्तेहि आवलियाए असंखेज्जदिभागेण अब्भहिएहि अट्ठवस्सेहि य ऊणमद्धपोग्गलपरियट्टमंतरं होदि । एत्थुववज्जतो अत्थो वुच्चदे। तं जधा- सासणं पडिवण्णविदियसमए जदि मरदि, तो णियमेण देवगदीए उववज्जदि । एवं जाव आवलियाए असंखेज्जदिभागो देवगदिपाओग्गो कालो होदि । तदो उवरि मणुसगदिपाओग्गो आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तो कालो होदि । एवं सण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-असण्णिपंचिंदियतिरिक्ख-चउरिदिय-तेइंदिय-वेइंदिय-एइंदियपाओग्गो होदि। एसो णियमो सव्वत्थ सासणगुणं पडिवज्जमाणाणं । सम्मामिच्छादिहिस्स णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एयसमओ, उक्कस्सेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो। एत्थ दव-कालंतरअप्पाबहुगस्स सासणभंगो । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्ट देसूणं । णवरि एत्थ विसेसो उच्चदे- एक्को तिरिक्खो अणादियमिच्छादिट्ठी तिण्णि करणाणि काऊण सम्मत्तं पडिवण्णपढमसमए अद्धपोग्गलपरियट्टमेत्तं संसारं काऊण पढमसम्मत्तं पडिवण्णो सम्मामिच्छत्तं गदो (१) मिच्छत्तं गंतूण (२) अद्धपोग्गलपरियट्ट परियट्टिद्ग दुचरिमभवे करणादि छह गुणस्थानोसम्बन्धी छह अन्तर्मुहूर्तोंसे (१४) निर्वाणको प्राप्त हुआ। इस प्रकार चौदह अन्तर्मुहूर्तोंसे तथा आवलीके असंख्यातवें भागसे अधिक आठ वर्षांसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तन सासादन सम्यग्दृष्टि गुणस्थानका उत्कृष्ट अन्तरकाल होता है । ___ अब यहांपर उपयुक्त होनेवाला अर्थ कहते हैं। वह इस प्रकार है- सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेके द्वितीय समयमें यदि वह जीव मरता है तो नियमसे देवगतिमें उत्पन्न होता है। इस प्रकार आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण काल देवगतिमें उत्पन्न होनेके योग्य होता है। उसके ऊपर मनुष्यगतिके योग्य काल आवलीके असंख्यातवें भागप्रमाण है। इसी प्रकारसे आगे आगे संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यंच, असंही पंचेन्द्रिय तिर्यंच, चतुरिन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, द्धीन्द्रिय और एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होने योग्य होता है । यह नियम सर्वत्र सासादन गुणस्थानको प्राप्त होनेवालोंका जानना चाहिए। सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थानका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय और उत्कर्षसे पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमाण अंतर है। यहां पर द्रव्य, काल और अन्तर सम्बन्धी अल्पबहुत्व सासादनगुणस्थानके समान है। इसीगुणस्थानका अन्तर एक जीबक्री अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे देशोन अर्धपुद्गलपरिवर्तन काल है । केवल यहां जो विशेषता है उसे कहते हैं- अनादि मिथ्यादृष्टि एक तिर्यंच तीनों करणोंको करके सम्यक्त्वके प्राप्त होनेके प्रथम समयमें अर्धपुद्गलपरिवर्तनमात्र संसारकी स्थितिको करके प्रथमोपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ और सम्यग्मिथ्यात्वको गया (१) फिर मिथ्यात्वको जाकर (२) अर्धपुद्गलपरिवर्तनप्रमाण परिभ्रमण करके द्विचरम भवमें पंचेन्द्रिय तिर्यत्रोंमें Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy