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१, ६, २७९. ]
अंतरानुगमे असंजद - अंतरपरूवणं
कुदो ? अकसायाणं जहाक्खादसंजमेण विणा अण्णसंजमाभावा । संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणेगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २७७ ॥
कुदो? गुणंतरग्गहणे मग्गणाविणासा, गुणंतरग्गहणेण विणा अंतरकरणे उवायाभावा । असंजदेसु मिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २७८ ॥
कुदो ! मिच्छादिट्टिप्पवाहवोच्छेदाभावा ।
एगजीवं पडुच जहणेण अंतोमुहुतं ॥ २७९ ॥
कुदो ? गुणंतरं गतूणंतरिय अविणट्ठअसंजमेण जहण्णकालेण पलट्टिय मिच्छत्तं पडिवण्णस्स अंतोमुहुत्तं तरुत्रलंभा ।
क्योंकि, अकषायी जीवोंके यथाख्यातसंयमके विना अन्य संयमका अभाव है । संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २७७ ॥
क्योंकि, अपने गुणस्थानको छोड़कर अन्य गुणस्थानके ग्रहण करने पर मार्गणाका विनाश होता है और अन्य गुणस्थानको ग्रहण किये विना अन्तर करनेका कोई उपाय नहीं है।
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असंयतों में मिध्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २७८ ॥
क्योंकि, मिथ्यादृष्टि जीवोंके प्रवाहका कभी विच्छेद नहीं होता ।
असंयमी मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २७९ ॥
क्योंकि, अन्य गुणस्थानको जाकर और अन्तरको प्राप्त होकर असंयमभावके नहीं नष्ट होनेके साथ ही जघन्य कालसे पलटकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए जीवके अन्तमुहूर्तप्रमाण अन्तर पाया जाता है ।
१ संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया एकजीवापेक्षया च नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८.
२ असंयतेषु मिथ्यादृष्टेर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८.
३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८.
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