________________
१, ६, २४४. ]
अंतरागमे मदि- सुद-ओहिणाणि - अंतरपरूवणं
[ १२३
तं जहा - एकको अट्ठावीस संतकम्मिओ पुन्त्रकोडाउअमणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सिओ वेदगसम्मत्तमप्पमत्तगुणं च जुगवं पडिवण्णो ( १ ) । तदो पमत्तापमत्त परावत्तसहस्सं काढूग ( २ ) उवसमसेढी पाओग्गविसोहीए विसुद्धो (३) अपुच्चो ( ४ ) अणि - ट्टी (५) सुमो ( ६ ) उवसंतो ( ७ ) पुणो वि सुमो ( ८ ) अणियट्टी ( ९ ) अपुव्वो (१०) होदूग हेट्ठा पडिय अंतरिदो । देसूणपुव्वकोडिं संजममणुपालेदूण मदो तेत्तीससागरो माउट्ठदिएस देवेसु उबवण्णो । तदो चुदो पुव्वकोडाउएस मणुसेसु उववष्णो । खइयं पट्टविय संजम काढूण कालं गदो तेत्तीससागरोवमा उट्ठिदिएस देवेसु उवaort | तदो चुदो पुत्रको डाउओ मणुसो जादो संजमं पडिवण्णो । अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अपुव्वो जादो । लद्धमंतरं ( ११ ) । अणिट्टी ( १२ ) सुमो (१३ ) उवसंतो (१४) भूओ सुमो (१५) अणिट्टी (१६ ) अपुच्वो (१७) अप्पमत्तो ( १८ ) पत्तो (१९) अप्पमत्तो ( २० ) । उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अट्ठहि वस्सेहि छव्वीसंतोमुहुहिय ऊणा तीहि पुव्वकोडीहि सादिरेयाणि छावट्टिसागरोवमाणि उक्कस्संतरं होदि । अधवा चत्तारि पुचकोडीओ तेरस-बावीस-एक्कत्तीससागरोवमाउट्ठिदिदेवेसु उप्पाइय
जैसे - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ । आठ वर्षका होकर वेदकसम्यक्त्व और अप्रमत्तगुणस्थानको एक साथ प्राप्त हुआ ( १ ) | तत्पश्चात् प्रमत्त और अप्रमत्तगुणस्थानसम्बन्धी सहस्रों परिवर्तनों को करके ( २ ) उपशमश्रेणीके प्रायोग्य विशुद्धिसे विशुद्ध होता हुआ (३) अपूर्वकरण (४) अनिवृत्तिकरण (५) सूक्ष्मसाम्पराय (६) उपशान्तकषाय (७) होकर फिर भी सूक्ष्मसाम्पराय ( ८ ) अनिवृत्तिकरण ( ९ ) अपूर्वकरण (१०) होकर तथा नीचे गिरकर अन्तरको प्राप्त हुआ । कुछ कम पूर्वकोटीकालप्रमाण संयमको परिपालन कर मरा और तेतीस सागरोपम आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। पश्चात् च्युत होकर पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और क्षायिकसम्यक्त्वको धारण कर और संयम धारण करके मरणको प्राप्त हो तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिबाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत होकर पूर्वकोटी आयुवाला मनुष्य हुआ और यथासमय संयमको प्राप्त हुआ । पुनः संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रह जाने पर अपूर्वकरणगुणस्थानवर्ती हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ ( ११ ) । पश्चात् अनिवृत्तिकरण (१२) सूक्ष्मसाम्पराय (१३) उपशान्तकषाय (१४) होकर पुनः सूक्ष्मसाम्पराय (१५) अनिवृत्तिकरण (१६) अपूर्वकरण ( १७ ) अप्रमत्तसंयत ( २८ ) प्रमत्तसंयत हुआ ( १९ ) । पुनः अप्रमत्तसंयत हुआ ( २० ) । इनमें ऊपर के क्षपकश्रेणीसम्बन्धी और भी छह अन्तमुहूर्त मिलाये । इस प्रकार आठ वर्ष और छब्बीस अन्तर्मुहूर्तोंसे कम तीन पूर्वकोटियोंसे साधिक छयासठ सागरोपम उत्कृष्ट अन्तर होता है । अथवा, तेरह, बाईस और इकतीस
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org