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छक्खंडागमे जीवाणं
[ १,६, २४५.
वतन्त्राओ । एवं चैव तिण्हमुवसामगाणं । णवरि चदुबीस बावीस वीस अंतोमुहुत्ता ऊणा कादव्वा । एवमोहिणाणीणं पि वत्तव्यं, विसेसाभावा ।
चदुण्हं खवगाणमोघं । णवरि विसेसो ओधिणाणीसु खवाणं वासपुत्तं ॥ २४५ ॥
कुदो ? ओधिणाणीणं पाएण संभवाभावा । मणपज्जवणाणीसु पमत्त - अप्पमत्त संजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पंडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ २४६ ॥
एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुतं ॥ २४७ ॥ एदं पि सुगमं । उक्कण अंतमुत्तं ॥ २४८ ॥
सागरोपम आयुकी स्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न कराकर मनुष्यभवसम्बन्धी चार पूर्वकोटियां कहना चाहिए। इसी प्रकारसे शेष तीन उपशामकोंका भी अन्तर कहना चाहिए । विशेष बात यह है कि अनिवृत्तिकरणके चौबीस अन्तर्मुहूर्त, सूक्ष्मसाम्परायके वाईस अन्तर्मुहूर्त और उपशान्तकषायके बीस अन्तर्मुहूर्त कम कहना चाहिए । इसी प्रकारसे उपशामक अवधिज्ञानियों का भी अन्तर कहना चाहिए, क्योंकि, उसमें भी कोई विशेषता नहीं है ।
तीनों ज्ञानवाले चारों क्षपकोंका अन्तर ओधके समान है । विशेष बात यह है कि अवधिज्ञानियों में क्षपकोंका अन्तर वर्षपृथक्त्व है ।। २४५ ।।
क्योंकि, अवधिज्ञानियों के प्रायः होनेका अभाव है ।
मन:पर्ययज्ञानियोंमें प्रमत्त और अप्रमत्त संयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। २४६ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २४७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है ।
उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २४८ ॥
१ चतुर्णां क्षपकाणां सामान्यवत् । किन्तु अवधिज्ञानिषु नानाजीवापेक्षया जघन्येनैकः समयः, उत्कर्षेण वर्षपृथक्त्वम् । एक्जीवं प्रति नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ प्रतिषु ' उप्पाएण ' इति पाठः । ३ मन:पर्ययज्ञानिषु प्रमत्ताप्रमत्तसंयतयोर्नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. ४ एकजीवं प्रति जघन्यमुत्कृष्टं चान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८.
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