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________________ १, ६, २५०.] अंतराणुगमे मणपज्जवणाणि-अंतरपरूवणं [१२५ तं जहा- एक्को पमत्तो मणपज्जवणाणी अप्पमत्तो होइंग उवरि चढिय हेट्ठा ओदरिदृण पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो मणपज्जवणाणी पमत्तो होणंतरिय सचिरेण कालेण अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं । उबसमसेटिं चढाविय किण्णंतराविदो ? ण, उवसमसेढिसबद्धाहितो पमत्तद्धा एक्का चेव संखेज्जगुणा त्ति गुरुवदेसादो। चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ २४९ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २५०॥ एदं पि सुगमं । जैसे- एक मनःपर्ययज्ञानी प्रमत्तसंयत जीव अप्रमत्तसंयत हो ऊपर चढ़कर और नीचे उतर कर प्रमत्तसंयत हो गया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयतका अन्तर कहते हैं- एक मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयत जीव प्रमत्तसंयत होकर अन्तरको प्राप्त हो अति दीर्घकालसे अप्रमत्तसंयत होगया। इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ। शंका-मनःपर्ययज्ञानी अप्रमत्तसंयतको उपशमश्रेणी पर चढ़ाकर पुनः अन्तरको प्राप्त क्यों नहीं कराया ? समाधान नहीं, क्योंकि, उपशमश्रेणीसम्बन्धी सभी अर्थात् चार चढ़नेके और तीन उतरनेके, इन सब गुणस्थानोसम्बन्धी कालोंसे अकेले प्रमत्तसंयतका काल ही संख्यातगुणा होता है, ऐसा गुरुका उपदेश है। मनःपर्ययज्ञानी चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ २४९ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ २५० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। १ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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