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________________ १२६] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, २५१. एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ २५१ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण पुव्वकोडी देसूणं ॥ २५२ ॥ ___ तं जहा- एक्को पुधकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो अंतोमुहुत्तब्भहियअदुवस्सेहि संजमं पडिवण्णो (१)। पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे सादासादबंधपरावत्तसहस्सं कादण (२) विसुद्धो मणपज्जवणाणी जादो ( ३ )। उवसमसेडीपाओग्गअप्पमत्तो होदण सेडीमुवगदो (४)। अपुग्यो (५) अणियट्टी (६ ) सुहुमो (७) उपसंतो (८) पुणो वि सुहुमो (९) अणियट्टी (१०) अपुल्यो (११) पमत्तापमत्तसंजदट्ठाणे (१२) पुवकोडिमच्छिदूण अणुदिसादिसु आउअंबंधिदूण अंतोमुहुत्तावसेसे जीविए विसुद्धो अपुव्वुवसामगो जादो । णिद्दा-पयलाणं बंधवोच्छिण्णे कालं गदो देवो जादो । अट्ठवस्सेहि वारसअंतोमुहुत्तेहि य ऊणिया पुव्यकोडी उक्कस्संतरं । एवं तिण्हमुवसामगाणं । णवरि जहाकमेण दस णव अट्ठ अंतोमुहुत्ता समओ य पुधकोडीदो ऊणा त्ति वत्तव्यं । मनःपर्ययज्ञानी चारों उपशामकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त है ॥ २५१॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर कुछ कम पूर्वकोटी है ॥२५२॥ जैसे- कोई एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ और अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आठ वर्षके द्वारा संयमको प्राप्त हुआ (१)। पुनः प्रमत्त-अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें साता और असाताप्रकृतियोंके सहस्रों बंध-परिवर्तनोंको करके (२)विशुद्ध हो मनःपर्ययज्ञानी हुआ (३)। पश्चात् उपशमश्रेाके योग्य अप्रमत्तसंयत होकर श्रेणीको प्राप्त हुआ (४)। तव अपूर्वकरण (५) अनिवृत्तिकरण (६) सूक्ष्मसाम्पराय (७) उपशान्तकषाय (८) पुनरपि सूक्ष्मसाम्पराय (९) अनिवृत्तिकरण (१०) अपूर्वकरण (११) होकर प्रमत्त और अप्रमत्तसंयत गुणस्थानमें (१२) पूर्वकोटीकाल तक रहकर अनुदिश आदि विमानवासी देवों में आयुको बांधकर जीवनके अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहने पर विशुद्ध हो अपूर्वकरण उपशामक हुआ। पुनः निद्रा तथा प्रचला, इन दो प्रकृतियोंके बंध-विच्छेद हो जाने पर मरणको प्राप्त हो देव हुआ । इस प्रकार आठ वर्ष और वारह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम पूर्वकोटी कालप्रमाण उत्कृष्ट अन्तर होता है। इसी प्रकार शेष तीन मनापर्ययशानी उपशामकोंका भी अन्तर होता है। विशेषता यह है कि उनके यथाक्रमसे दश, नौ और आठ भन्तर्मुहूर्त तथा एक समय पूर्वकोटीसे कम कहना चाहिए। १ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १,८. २ उत्कर्षेण पूर्वकोटी देशोना। स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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