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१, ६, २५७. ]
अंतरागमे केवलणाणि - अंतरपरूवणं
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चदुण्हं खवगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ २५३ ॥ सुगममेदं ।
उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २५४ ॥
कुदो ? मणपज्जवणाणेण खवगसेटिं चढमाणाणं पउरं संभवाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ २५५ ॥
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एदं पि सुगमं ।
केवलणाणी जोगकेवली ओधं ॥ २५६ ॥ णाणेगजीव अंतराभावेण साधम्मादो | अजोगिकेवली ओघं ॥ २५७ ॥
सुगममेदं सुतं ।
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एवं णाणमग्गणा समत्ता ।
मन:पर्ययज्ञानी चारों क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। २५३ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है || २५४ ॥
क्योंकि, मन:पर्ययज्ञानके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंका प्रचुरतासे होना संभव नहीं है ।
मन:पर्ययज्ञानी चारों क्षपकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २५५ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
केवलज्ञानी जीवोंमें सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है || २५६ ॥ क्योंकि, नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे समानता है । अयोगharat अन्तर ओघके समान है ॥ २५७ ॥
यह सूत्र भी सुगम है ।
इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई ।
११ चतुर्णा क्षपकाणामवधिज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. २ द्वयोः केवलज्ञानिनोः सामान्यवत् । स. सि. १, ८.
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