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________________ १, ६, २५७. ] अंतरागमे केवलणाणि - अंतरपरूवणं [ १२७ चदुण्हं खवगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहणेण एगसमयं ॥ २५३ ॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ २५४ ॥ कुदो ? मणपज्जवणाणेण खवगसेटिं चढमाणाणं पउरं संभवाभावा । एगजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं निरंतरं ॥ २५५ ॥ " एदं पि सुगमं । केवलणाणी जोगकेवली ओधं ॥ २५६ ॥ णाणेगजीव अंतराभावेण साधम्मादो | अजोगिकेवली ओघं ॥ २५७ ॥ सुगममेदं सुतं । Jain Education International एवं णाणमग्गणा समत्ता । मन:पर्ययज्ञानी चारों क्षपकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ।। २५३ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है || २५४ ॥ क्योंकि, मन:पर्ययज्ञानके साथ क्षपकश्रेणीपर चढ़नेवाले जीवोंका प्रचुरतासे होना संभव नहीं है । मन:पर्ययज्ञानी चारों क्षपकोंका एक जीवकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २५५ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । केवलज्ञानी जीवोंमें सयोगिकेवलीका अन्तर ओघके समान है || २५६ ॥ क्योंकि, नाना और एक जीवकी अपेक्षा अन्तरका अभाव होनेसे समानता है । अयोगharat अन्तर ओघके समान है ॥ २५७ ॥ यह सूत्र भी सुगम है । इस प्रकार ज्ञानमार्गणा समाप्त हुई । ११ चतुर्णा क्षपकाणामवधिज्ञानिवत् । स. सि. १, ८. २ द्वयोः केवलज्ञानिनोः सामान्यवत् । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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