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________________ १२८] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [ १, ६, २५८. संजमाणुवादेण संजदेसु पमत्तसंजदप्पहडि जाव उवसंतकसायवीदरागछदुमत्था त्ति मणपज्जवणाणिभंगो ॥ २५८ ॥ पमत्तापमत्तसंजदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतर; एगजीवं पडुच्च जहष्णुक्कस्सेण अंतोमुहुत्तं । चदुण्हमुवसामगाणं णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमओ, उक्कस्सेण वासपुधत्तं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण देसूणपुव्वकोडी अंतरमिदि तदो विसेसाभावा । चदुण्हं खवा अजोगिकेवली ओघं ॥ २५९ ॥ सुगमं । सजोगिकेवली ओघं ॥ २६०॥ एदं पि सुगमं । सामाइय-छेदोवट्ठावणसुद्धिसंजदेसु पमत्तापमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥२६१॥ गयत्थं । संयममार्गणाके अनुवादसे संयतोंमें प्रमत्तसंयतको आदि लेकर उपशान्तकषायवतिरागछमस्थ तक संयतोंका अन्तर मनःपर्ययज्ञानियोंके समान है ॥ २५८ ॥ प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्य और उत्कृष्ट अन्तर अन्तर्मुहूर्त है । चारों उपशामकोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्य अन्तर एक समय और उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है । एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कृष्ट कुछ कम पूर्वकोटीप्रमाण अन्तर है, इसलिए उससे यहांपर कोई विशेषता नहीं है। चारों क्षपक और अयोगिकेवली संयतोंका अन्तर ओघके समान है ॥२५९ ॥ यह सूत्र सुगम है। सयोगिकेवली संयतोंका अन्तर ओघके समान है ॥ २६० ॥ यह सूत्र भी सुगम है। सामायिक और छेदोपस्थापनाशुद्धिसंयतोंमें प्रमत्त तथा अप्रमत्त संयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २६१ ॥ इस सूत्रका अर्थ पहले कहा जा चुका है। १ सयमानुवादेन सामायिकच्छेदोपस्थापनशुद्धि संयतेषु प्रमत्तानमत्तयो नाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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