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________________ १६०] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, ३४३. तरिमाए उवसंतद्धाए खबगद्धाए अद्धं सुद्धं । अवसेसा एअद्धछ?अंतोमुहुत्ता । एदेहि ऊणपुधकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि अप्पमत्तुक्कस्संतरं । चदुण्हमुवसामगाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ३४३॥ सुगममेदं । उक्कस्सेण वासपुधत्तं ॥ ३४४ ॥ एवं पि सुगमं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ ३४५ ॥ एदं पि अवगदत्थं । उक्कस्सेण तेत्तीसं सागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ ३४६ ॥ तं जहा- एक्को पुव्वकोडाउएसु मणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सेहि अंतोमुहुत्तब्भहिएहि (१) अप्पमत्तो जादो (२)। पमत्तापमत्तपरावत्तसहस्सं कादूण तम्हि चेव अन्तरके भीतरी उपशान्तकालमेंसे क्षपककालका आधा घटाने पर आधा काल शेष रहा। अवशिष्ट साढ़े पांच अन्तर्मुहूर्त रहे । उनसे कम पूर्वकोटीसे साधिक तेतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि चारों उपशामकोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय अन्तर है ॥ ३४३ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवों में उत्कृष्ट अन्तर वर्षपृथक्त्व है ॥ ३४४ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ३४५॥ इस सूत्रका भी अर्थ ज्ञात है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक तेतीस सागरोपम है ॥ ३४६ ॥ जैसे- एक जीव पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। अन्तर्मुहूर्तसे अधिक आठ वर्षों के द्वारा (१) अप्रमत्तसंयत हुआ (२)। पुनः प्रमत्त और अप्रमत्तसंयतसंबंधी सहस्रों परिवर्तनोंको करके उसी कालमें क्षायिकसम्यक्त्वको भी प्रस्थापनकर (३) १ प्रतिषु 'चट्ठ' इति पाठः। २ चतुर्णामुपशमकानां नानाजीवापेक्षया सामान्यवत् । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ४ उत्कर्षेण त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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