SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 249
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १, ६, ३४२.] अंतराणुगमे खइयसम्मादिट्ठि-अंतरपरूवणं [१५९ अधवा अंतरस्सब्भंतराओ दो अप्पमत्तद्धाओ, तासिं बाहिरिया एक्का पमत्तद्धा सुद्धा । अंतरमंतराओ छ उवसामगद्धाओ, तासिं बाहिरियाओ तिणि खवगद्धाओ सुद्धाओ । अंतरभंतरिमाए उवसंतद्धाए एक्किकिस्से खवगद्धाए अद्धं सुद्धं । अवसेसा अट्ठा अंतोमुहुत्ता। तेहि ऊणियाए पुचकोडीए सादिरेयाणि तेत्तीसं सागरोवमाणि पमत्तस्सुक्कस्संतरं । __ अप्पमत्तस्स उच्चदे- एक्को अप्पमत्तो खइयसम्मादिट्ठी अपुव्वो (१) अणियट्टी (२) सुहुमो (३) उवसंतो (४) पुणो वि सुहुमो (५) अणियट्टी (६) अपुग्यो होदूण (७) कालं गदो समऊणतेत्तीससागरोवमाउट्ठिदिएमु देवेसुववण्णो । तदो चुदो पुवकोडाउएमु मणुसेसु उववण्णो, अंतोमुहुत्तावसेसे संसारे अप्पमत्तो जादो । लद्धमंतरं (१)। तदो पमत्तो (२) पुणो अप्पमत्तो (३)। उवरि छ अंतोमुहुत्ता । अंतरस्स अन्भंतरिमाओ छ उवसामगद्धाओ बाहिििल्लयासु तिसु खवगद्धासु सुद्धाओ । अब्भं ___ अथवा, अन्तरके आभ्यन्तरी दो अप्रमत्तकाल हैं और उनके बाहरी एक प्रमत्तकाल शुद्ध है। (अतएव घटाने पर शून्य शेष रहा, क्योंकि, अप्रमत्तसंयतके कालसे प्रमत्तसंयतका काल दूना होता है।) तथा अन्तरके भीतरी छह उपशामककाल हैं, और उनके बाहरी तीन क्षपककाल शुद्ध हैं। (अतएव घटा देने पर शेष कुछ नहीं रहा, क्योंकि उपशमश्रेणीके कालसे क्षपकश्रेणीका काल दुगुना होता है।) अन्तरके भीतरी उपशामक कालमेंसे एक क्षपककालके आधा घटाने पर क्षपककालका आधा शेष रहता है । इस प्रकार सब मिलाकर साढ़े तीन अन्तर्मुहूर्त अवशेष रहे। उन साढ़े तीन अन्तर्मुहूतौसे कम पूर्वकोटसेि साधिक तेतीस सागरोपमकाल क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है। क्षायिकसम्यग्दृष्टि अप्रमत्तसंयतका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- एक अप्रमत्तसंयत क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव अपूर्वकरण (१) अनिवृत्तिकरण (२) सूक्ष्मसाम्पराय (२) उपशान्तकषाय (४) होकर पुनरपि सूक्ष्मसाम्पराय (५) अनिवृत्तिकरण (६) अपूर्वकरण (७) होकर मरणको प्राप्त हुआ और एक समय कम तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले देवोंमें उत्पन्न हुआ। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ और संसारके अन्तर्मुहूर्त अवशिष्ट रह जाने पर अप्रमत्तसंयत हुआ । इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया (१)। पश्चात् प्रमत्तसंयत (२) पुनः अप्रमत्तसंयत (३) हुआ । इनमें ऊपरके छह अन्तर्मुहूर्त और मिलाये। अन्तरके आभ्यन्तरी छह उपशामककाल हैं और बाहरी तीन क्षपककाल हैं, अतएव घटा देने पर शेष कुछ नहीं रहा। १ प्रतिषु ' लदं ' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy