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________________ १, ६, १८२.] अंतराणुगमे इत्थिवेदि-अंतरपरूवणं [९५ तं जहा- एक्को पुरिसवेदो णउंसयवेदो वा अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ पणवण्णपलिदोवमाउट्ठिदिदेवीसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) वेदगसम्मत्तं पडिवण्णो अंतरिदो अवसाणे आउअं बंधिय मिच्छत्तं गदो । लद्धमंतर (४)। सम्मत्तेण बद्धाउअत्तादो सम्मत्तेणेव णिग्गदो (५) मणुसो जादो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणाणि पणवण्ण पलिदोवमाणि उक्कस्संतरं होदि। छप्पुढविणेरइएसु सोहम्मादिदेवेसु च सम्माइट्ठी बद्धाउओ पुव्वं मिच्छत्तेण णिस्सारिदो। एत्थ पुण पणवण्णपलिदोवमाउट्ठिदिदेवीसु तहा ण णिस्सारिदो । एत्थ कारणं जाणिय वत्तव्यं ।। सासणसम्मादिट्ठि-सम्मामिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च ओघं ॥ १८१ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो, अंतोमुहुत्तं ॥ १८२॥ ___ जैसे-मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक पुरुषवेदी, अथवा नपुंसकवेदी जीव, पचवन पल्योपमकी आयुस्थितिवाली देवियों में उत्पन्न हुआ। छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ और आयुके अन्तमें आगामी भवकी आयुको बांधकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया (४)। सम्यक्त्वके साथ आयुके बांधनेसे सम्यक्त्वके साथ ही निकला (५) और मनुष्य हुआ। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतौसे कम पचवन पल्योपम स्त्रीवेदी मिथ्यादृष्टिका उत्कृष्ट अन्तर होता है। पहले ओघप्ररूपणामें छह पृथिवियोंके नारकियोंमें तथा सौधर्मादि देवोंमें बद्धायुष्क सम्यग्दृष्टि जीव मिथ्यात्वके द्वारा निकाला था। किन्तु यहां पचवन पल्योपमकी आयुस्थितिवाली देवियोंमें उस प्रकारसे नहीं निकाला । यहांपर इसका कारण जानकर कहना चाहिए। स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा ओघके समान अन्तर है ॥ १८१ ॥ यह सूत्र सुगम है। स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्रमशः पल्योपमका असंख्यातवां भाग और अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८२ ॥ १ प्रतिषु ‘-देवेसु ' इति पाठः । २ सासादनसम्यग्दृष्टिसम्यग्मिध्यादृष्टयो नाजीवापेक्षया सामान्यवत । स. सि. १, ८. ३ एकजीवं प्रति जघन्येन पल्योपमासंख्येयभागोऽन्तर्मुहर्तश्च । स. सि. १,८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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