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________________ ९६ ] छक्खंडागमे जीवाणं एदं पि सुत्तं सुगममेव । उक्कस्सेण पलिदोवमसदपुधत्तं ॥ १८३ ॥ तं जहा - एक अण्णवेदट्ठिदिमच्छिदो सासणद्वार एगो समओ अस्थि ति इत्थवेदे उवष्णो एगसमयं सासणगुणेण दिट्ठो । विदियसमए मिच्छत्तं गतूणंतरिदो । त्थीवेदट्ठदिं परिभमिय अवसाणे त्थीवेदविदीए एगसमयावसेसाए सासणं गदो । लद्धमंतरं । मदो वेदंतरं गदो । वेहि समएहि ऊणयं पलिदोवमसदपुधत्तमंतरं लद्धं । सम्मामिच्छादिट्ठिस्स उच्चदे- एको अट्ठावीसमोहसंतकम्मिओ अण्णवेदो देवीसु उववण्णो । छहि पज्जतीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो ( ४ ) मिच्छत्तं गतूणंतरिदेो । त्थीवेदट्ठिदिं परिभमिय अंते सम्मामिच्छत्तं गदो (५) । लद्धमंतरं । जेण गुणेण आउअं बद्धं तं गुणं पडिवज्जिय अण्णवेदे उवणो ( ६ ) । एवं छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया त्थीवेदट्ठिदी सम्मामिच्छत्तु कस्सं तरं होदि । [ १, ६, १८३. यह सूत्र भी सुगम ही है । स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व है ।। १८३ ॥ जैसे अन्य वेदकी स्थितिको प्राप्त कोई एक जीव सासादनगुणस्थानके कालमें एक समय अवशिष्ट रहने पर स्त्रीवेदियों में उत्पन्न हुआ और एक समय सासादनगुणस्थानके साथ दिखाई दिया । द्वितीय समयमें मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ । ardast स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तमें स्त्रीवेदकी स्थितिमें एक समय अवशेष रहने पर सासादनगुणस्थानको गया । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । पुनः मरा और अन्य वेदको प्राप्त होगया। इस प्रकार दो समयोंसे कम पल्योपमशतपृथक्त्वकाल स्त्रीवेदी सासादनसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर प्राप्त हुआ । Jain Education International I अव सम्यग्मथ्यादृष्टि स्त्रीवेदी जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहनीयकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव देवियोंमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले (२) विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४) । पश्चात् मिथ्यात्वको प्राप्त होकर अन्तरको प्राप्त हुआ । स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हो गया। पीछे जिस गुणस्थानसे आयुको बांधा था, उसी गुणस्थानको प्राप्त होकर अन्य जीव उत्पन्न हुआ ( ६ ) । इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तों से कम स्त्रीवेदकी स्थिति सम्यमिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है । १ उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १, ८. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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