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________________ अंतरागमे इथिवेदि - अंतर परूवणं [ ९७ असंजदसम्मादिद्विपहूडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १८४ ॥ १, ६, १८६. ] एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहुतं ॥ १८५ ॥ कुदो ? अण्णगुणं गंतूण पडिणियत्तिय तं चैव गुणमागदाणमंतोमुहु संत रुवलंभा । उक्कस्सेण पलिदोवमसदधतं ॥ १८६ ॥ असंजदसम्मादिट्ठिस्स उच्चदे । तं जहा एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ देवेसु उबवण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो ( १ ) विस्संतो ( २ ) विसुद्धो (३) वेदगसम्मतं पडवण्णो ( ४ ) मिच्छत्तं गदो अंतरिदो त्थीवेदडिदि परिभमिय अंते उवसमसम्मत्तं पडिवण्णो ( ५ ) । लद्धमंतरं । छावलियावसेसे पढमसम्मत्तकाले सासणं गंतूण दो वेदतरं गदो | पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणयं पलिदोवमसदपुधत्तमंतरं होदि । देसूण असंयतसम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक प्रत्येक गुणस्थानवर्ती स्त्रीवेदियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १८४ ॥ यह सूत्र सुगम है । उक्त गुणस्थानवाले स्त्रीवेदियोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १८५ ॥ क्योंकि, अन्य गुणस्थानको जाकर और लौटकर उसी ही गुणस्थानको आये हुए जीवोंका अन्तर्मुहूर्त अन्तर पाया जाता है । उक्त जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर पल्योपमशतपृथक्त्व है ॥ ९८६ ॥ इनमेंसे पहले स्त्रीवेदी असंयतसम्यग्दृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं - मोहकी अट्ठाईस कर्मप्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक जीव देवोंमें उत्पन्न हुआ । छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो ( १ ) विश्राम ले ( २ ) विशुद्ध हो ( ३ ) वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ (४) । पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो, स्त्रीवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमणकर अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको प्राप्त हुआ ( ५ ) । इस प्रकार अन्तर लब्ध हुआ । प्रथमोपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रहने पर सासादनगुणस्थानको जाकर मरा और अन्य वेदको गया । इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतौसे कम पल्योपमशतपृथक्त्वप्रमाण अन्तर होता है । Jain Education International १ असंयत सम्यग्दृष्ट्याद्यप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण पल्योपमशतपृथक्त्वम् । स. सि. १,८० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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