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भावामै सम्मादिट्टिभाव-परूवणं
ओदइएण भावेण पुणो असंजदों ॥ ७६ ॥
अवगत्थमेदं ।
१, ७, ८०. ]
संजदासंजद - पमत्त - अप्पमत्तसंजदा त्ति को भावो, खओवसमिओ भावों ॥ ७७ ॥ दमेयं ।
खओवसमियं सम्मत्तं ॥ ७८ ॥
कुदो ? दंसणमोहोदए संते वि जीवगुणीभूदसद्दहणस्स उप्पत्तीए उवलंभा । उवसम सम्मादिट्टी असंजदसम्मादिट्टि त्ति को भावो, उवसमिओ भावो ॥ ७९ ॥
दो ? दंसणमवसमेप्पण्णसम्मत्तादो । उवसामियं सम्मत्तं ॥ ८० ॥
किन्तु वेदकसम्यग्दृष्टिका असंयतत्व औदयिक भाव से है ।। ७६ ।।
इस सूत्र का अर्थ जाना हुआ है ।
वेदकसम्यग्दृष्टि संयतासंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत यह कौनसा भाव है ? क्षायोपशमिकभाव है ॥ ७७ ॥
इस सूत्र का अर्थ ज्ञात है ।
उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन क्षायोपशमिक होता है ॥ ७८ ॥
क्योंकि, दर्शनमोहनीयके ( अंगभूत सम्यक्त्वप्रकृतिके ) उदय रहने पर भी जीवके गुणस्वरूप श्रद्धानकी उत्पत्ति पाई जाती है ।
उपशमसम्यग्दृष्टियों में असंयतसम्यग्दृष्टि यह कौनसा भाव है ? औपशमिक भाव है ॥ ७९ ॥
क्योंकि, उपशमसम्यग्दृष्टियोंका सम्यक्त्व दर्शनमोहनीयकर्मके उपशमसे उत्पन्न
हुआ है।
उक्त जीवोंके सम्यग्दर्शन औपशमिक होता है ॥ ८० ॥
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१ असंयतः पुनरौदयिकेन भावेन । स. सि. १, ८.
२ संयतासंयत प्रमचाप्रमत्तसंयतानां क्षायोपशमिको भावः । स. सि. १, ८,
३ क्षायोपशमिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८.
४ औपशमिकसम्यग्दृष्टिषु असंयत सम्यग्दृष्टेरोपशमिको भावः । स. सि. १, ८. ५ औपशमिकं सम्यक्त्वम् । स. सि. १, ८.
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