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________________ ७८ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १३०. कायाणुवादेण पुढविकाइय-आउकाइय-तेउकाइयचाउकाइयबादर-सुहुम-पज्जत्त-अपज्जत्ताणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णस्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ १३०॥ सुगममेदं सुत्तं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण खुद्दाभवग्गहणं ॥ १३१ ॥ कुदो ? एदेसिमणप्पिदअपज्जत्तएमु उप्पज्जिय सव्वत्थोवेण कालेण पुणो अप्पिदकायमागदाणं खुद्दाभवग्गहणमेत्तजहण्णंतरुवलंभा । उक्कस्सेण अणंतकालमसंखेज्जपोग्गलपरियढें ॥ १३२॥ कुदो ? अप्पिदकायादो वणप्फदिकाइएमुप्पज्जिय अंतरिदजीवो वणप्फदिकायद्विदि आवलियाए असंखेज्जदिभागपोग्गलपरियट्टमेत्तं परिभमिय अणप्पिदसेसकायट्ठिदि च, तदो अप्पिदकायमागदो जो होदि, तस्स मुत्तुत्तुक्कस्संतरुवलंभा । कायमार्गणाके अनुवादसे पृथिवीकायिक, जलकायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक, इनके बादर और सूक्ष्म तथा उन सबके पर्याप्तक और अपर्याप्तक जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ १३० ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण है॥१३१॥ क्योंकि, इन पृथिवीकायिकादि जीवोंका अविवक्षित अपर्याप्तकोंमें उत्पन्न होकर सर्वस्तोक कालसे पुनः विवक्षित कायमें आये हुए जीवोंके क्षुद्रभवग्रहणप्रमाण जघन्य अन्तर पाया जाता है। . उक्त पृथिवीकायिक आदि जीवोंका उत्कृष्ट अन्तर अनन्तकालात्मक असंख्यात पुद्गलपरिवर्तन है ॥ १३२॥ क्योंकि, विवक्षित कायसे वनस्पतिकायिकोंमें उत्पन्न होकर अन्तरको प्राप्त हुआ जीव आवलीके असंख्यातवें भाग पुद्गलपरिवर्तन वनस्पतिकायकी स्थिति तक परिभ्रमण कर और अविवक्षित शेष कायिक जीवोंकी भी स्थिति तक परिभ्रमण करके तत्पश्चात् विवक्षित कायमें जो जीव आता है उसके सूत्रोक्त उत्कृष्ट अन्तर पाया जाता है। १ कायानुवादेन पृथिव्यप्तेजोवायुकायिकानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीवं प्रति जघन्येन क्षुद्रभवग्रहणम् । स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेणानन्तः कालोऽसंख्येयाः पुद्गलपरिवर्ताः । स.सि. १,८. ........................... Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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