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________________ १०२] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ६, १९८. गंतूणंतरिदो पुरिसवेदविदि भमिय अवसाणे उवसमसम्मत्तं घेत्तूण सासणं पडिवण्णो । विदियसमए मदो देवेसु उववण्णो । एवं वि-समऊणसागरोवमसदपुधत्तमुक्कस्संतरं होदि। सम्मामिच्छादिद्विस्स उच्चदे- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ अण्णवेदो देवेसु उववण्णो । छहि पज्जत्तीहि पज्जत्तयदो (१) विस्संतो (२) विसुद्धो (३) सम्मामिच्छत्तं पडिवण्णो (४) मिच्छत्तं गंतूगंतरिदो सगढिदिं परिभमिय अंते सम्मामिच्छत्तं गदो (५)। लद्धमंतरं । अण्णगुणं गंतूण (६) अण्णवेदे उववण्णो । छहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणं सागरोवमसदपुधत्तमुक्कस्संतरं होदि ।। असंजदसम्मादिटिप्पहुडि जाव अप्पमत्तसंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥१९८ ॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं ॥ १९९ ॥ एवं पि सुगमं । ' जाकर अन्तरको प्राप्त हुआ। पुरुषवेदकी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके आयुके अन्तमें उपशमसम्यक्त्वको ग्रहण कर सासादन गुणस्थानको प्राप्त हुआ। पश्चात् द्वितीय समयमें मरा और देवोंमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार उक्त जीवोंका दो समय कम सागरोपमशतपृथक्त्व अन्तर होता है। पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर कहते हैं- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला कोई एक अन्य वेदी जीव, देवोंमें उत्पन्न हुआ, छहों पर्याप्तियोंसे पर्याप्त हो (१) विश्राम ले (२)विशुद्ध हो (३) सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (४)। पश्चात् मिथ्यात्वको जाकर अन्तरको प्राप्त हो अपनी स्थितिप्रमाण परिभ्रमण करके अन्तमें सम्यग्मिथ्यात्वको प्राप्त हुआ (५)। इस प्रकार अन्तर लब्ध होगया। तत्पश्चात् अन्य गुणस्थानको जाकर (६) अन्य वेदमें उत्पन्न हुआ। इस प्रकार छह अन्तर्मुहूर्तोंसे कम सागरोपमशतपृथक्त्व पुरुषवेदी सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीवका उत्कृष्ट अन्तर होता है। ___ असंयतसम्यग्दृष्टि से लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थान तक पुरुषवेदी जीवोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ।। १९८ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त गुणस्थानवी जीवोंका जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ १९९ ॥ यह सूत्र भी सुगम है। १ असंयतसम्यग्दृष्टयाचप्रमत्तान्तानां नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १,८. २ एकजीवं प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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