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________________ .... ... . ... . .... .... .... .... अभय 44444 ३ धवलाका गणितशास्त्र (१९) जघन्य युक्तानन्त न युज मध्यम-युक्तानन्त उत्कृष्ट-युक्तानन्त जघन्य-अनन्तानन्त मध्यम-अनन्तानन्त न न म उत्कृष्ट-अनन्तानन्त न न उ संख्यातका संख्यात्मक परिमाण- सभी जैन ग्रंथोंके अनुसार जघन्य संख्यात २ है, क्योंकि, उन ग्रंथोंके मतसे भिन्नताकी बोधक यही सबसे छोटी संख्या है। एकत्वको संख्यातमें सम्मिलित नहीं किया । मध्यम संख्यातमें २ और उत्कृष्ट संख्यातके बीचकी समस्त गणना आ जाती है, तथा उत्कृष्ट-संख्यात जघन्य-परीतासंख्यातसे पूर्ववर्ती अर्थात् एक कम गणनाका नाम है । अर्थात् स उ = अ प ज - १ । अ प ज को त्रिलोकसारमें निम्न प्रकारसे समझाया है जैन भूगोलानुसार यह विश्व, अर्थात् मध्यलोक, भूमि और जलके क्रमवार वलयोंसे बना हुआ है । उनकी सीमाएं उत्तरोत्तर बढ़ती हुई त्रिज्याओंवाले समकेन्द्रीय वृत्तरूप हैं। किसी भी भूमि या जलमय एक वलयका विस्तार उससे पूर्ववर्ती वलयके विस्तारसे दुगुना है। केन्द्रवर्ती वृत्त (सबसे प्रथम बीचका वृत्त) एक लाख (१००,०००) योजन व्यासवाला है, और जम्बूद्वीप कहलाता है । अब बेलनके आकारके चार ऐसे गडोंकी कल्पना कीजिये जो प्रत्येक एक लाख योजन व्यासवाले और एक हजार योजन गहरे हों। इन्हें अ, ब,, स, और ड, कहिये। अब कल्पना कीजिये कि अ, सरसोंके बीजोंसे पूरा भर दिया गया और फिर भी उस पर और सरसों डाले गये जब तक कि उसकी शिखा शंकुके आकारकी हो जाय, जिसमें सबसे ऊपर एक सरसोंका बीज रहे । इस प्रक्रियाके लिये जितने सरसोंके बीजोंकी आवश्यकता होगी उनकी संख्या इस प्रकार है ___ बेलनाकार गड़ेके लिये-१९७९१२०९२९९९६८.१०२। ऊपर शंकाकार शिखाके लिये- १७९९२००८४५४५१६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६३६ ३६। संपूर्ण सरसोंका प्रमाण- १९९७११२९३८४५१३१६३६३६३६३६३६३६१६१६३६३६३६३६३६३६३६. १ देखो त्रिलोकसार, गाथा ३५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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