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________________ ( १८ ) षट्खंडागमकी प्रस्तावना (स) उत्कृष्ट संख्यात ( सबसे बड़ी संख्या ) जिसका संकेत हम स उ मान लेते हैं । (२) असंख्यात ( अगणनीय) के भी तीन भेद हैं ( अ ) परीत-असंख्यात ( प्रथम श्रेणीका असंख्य ) जिसका संकेत हम अपमान लेते हैं । (ब) युक्त असंख्यात ( बीचका असंख्य ) जिसका संकेत हम अ यु मान लेते हैं । ( स ) असंख्याता संख्यात ( असंख्य - असंख्य ) जिसका संकेत हम अ अ मान लेते हैं । पूर्वोक्त इन तीनों भेदोंमेंसे प्रत्येकके पुनः तीन तीन प्रभेद होते हैं । जैसे, जघन्य (सबसे छोटा ), मध्यम ( बीचका ) और उत्कृष्ट ( सबसे बड़ा ) । इस प्रकार असंख्यात के भीतर निम्न संख्याएं प्रविष्ट हो जाती हैं 1 १ २ ३ १ २ ३ १ २ ३ २ जघन्य - परीत- असंख्यात मध्यम - परीत- असंख्यात उत्कृष्ट परीत- असंख्यात जघन्य युक्त असंख्यात मध्यम-युक्त-असंख्यात उत्कृष्ट युक्त असंख्यात जघन्य - असंख्याता संख्यात मध्यम- असंख्याता संख्यात उत्कृष्ट-असंख्यातासंख्यात Jain Education International *******. *****....... ............................................ हैं - (३) अनन्त --- जिसका संकेत हम न मान चुके हैं। उसके तीन भेद ( अ ) परीत-अनन्त ( प्रथम श्रेणीका अनन्त ) जिसका संकेत हम न प मान लेते हैं । ( ब ) युक्त-अनन्त ( बीचका अनन्त ) जिसका संकेत हम न यु मान लेते हैं । ( स ) अनन्तानन्त ( निःसीम अनन्त ) जिसका संकेत हम न न मान लेते हैं । असंख्यात समान इन तीनों भेदोंके भी प्रत्येकके पुनः तीन तीन प्रभेद होते हैं । _ जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट | अतः अनन्तके भेदों में हमें निम्न संख्याएं प्राप्त होती हैं जघन्य - परीतानन्त न प ज मध्यम- परीतानन्त न प म उत्कृष्ट - परीतानन्त न प उ अ प ज अ प म अ प उ अयु ज अयु म अयु उ अ अ ज अ अ म अ अ उ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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