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________________ धवलाका गणितशास्त्र (१७) गणनानन्त ( Numerical infinite) धवलामें यह स्पष्टरूपसे कह दिया गया है कि प्रकृतमें अनन्त संज्ञाका प्रयोग' गणनानन्तके अर्थमें ही किया गया है, अन्य अनन्तोंके अर्थ में नहीं, क्योंकि उन अन्य अनन्तोके द्वारा प्रमाणका प्ररूपण नहीं पाया जाता। यह भी कहा गया है कि 'गणनानन्त बहुवर्णनीय और सुगम है । इस कथनका अर्थ संभवतः यह है कि जैन-साहित्यमें अनन्त अर्थात् गणनानन्तकी परिभाषा अधिक विशदरूपसे भिन्न भिन्न लेखकों द्वारा कर दी गई थी, तथा उसका प्रयोग और ज्ञान भी सुप्रचलित हो गया था। किन्तु धवलामें अनन्तकी परिभाषा नहीं दी गई। तो भी अनन्तसंबंधी प्रक्रियाएं संख्यात और असंख्यात नामक प्रमाणोंके साथ साथ बहुत वार उल्लिखित हुई हैं। संख्यात, असंख्यात और अनन्त प्रमाणोंका उपयोग जैन साहित्यमें प्राचीनतम ज्ञातकालसे किया गया है । किन्तु प्रतीत होता है कि उनका अभिप्राय सदैव एकसा नहीं रहा । प्राचीनतर ग्रंथोंमें अनन्त सचमुच अनन्तके उसी अर्थमें प्रयुक्त हुआ था जिस अर्थमें हम अब उसकी परिभाषा करते हैं। किन्तु पीछेके ग्रंथोंमें उसका स्थान अनन्तानन्तने ले लिया । उदाहरणार्थ- नेमिचंद्र द्वारा दशवीं शताब्दिमें लिखित ग्रंथ त्रिलोकसारके अनुसार परीतानन्त, युक्तानन्त एवं जघन्य अनन्तानन्त एक बड़ी भारी संख्या है, किन्तु है वह सान्त । उस ग्रंथके अनुसार संख्याओंके तीन मुख्य भेद किये जा सकते हैं (१) संख्यात-जिसका संकेत हम स मान लेते हैं । (२) असंख्यात-जिसका संकेत हम अ मान लेते हैं। (३) अनन्त—जिसका संकेत हम न मान लेते हैं । उपर्युक्त तीनों प्रकारके संख्या-प्रमाणोंके पुनः तीन तीन प्रभेद किये गये हैं जो निम्न प्रकार हैं(१) संख्यात- ( गणनीय ) संख्याओंके तीन भेद हैं (अ) जघन्य-संख्यात ( अल्पतम संख्या ) जिसका संकेत हम स ज मान लेते हैं । (ब) मध्यम-संख्यात (बीचकी संख्या) जिसका संकेत हम स म मान लेते हैं । १ धवला ३, पृ. १६. २ ण च सेसअणंताणि पमाणपरूवणाणि, तत्थ तधादसणादोध. ३, पृ. १७. ३'जंतं गणणाणतं तं बहुवण्णणीयं सुगमंच'ध. ३, पृ. १६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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