________________
(१६)
षट्खंडागमकी प्रस्तावना (२) स्थापनानन्त'- आरोपित या आनुषंगिक, या स्थापित अनन्त । यह भी यथार्थ अनन्त नहीं है। जहां किसी वस्तुमें अनन्तका आरोपण कर लिया जाता है वहां इस शब्दका प्रयोग किया जाता है।
(३) द्रव्यानन्त'- तत्काल उपयोगमें न आते हुए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त । इस संज्ञाका उपयोग उन पुरुषोंके लिये किया जाता है जिन्हें अनन्त-विषयक शास्त्रका ज्ञान है, जिसका वर्तमानमें उपयोग नहीं है।
(४) गणनानन्त- संख्यात्मक अनन्त । यह संज्ञा गणितशास्त्रमें प्रयुक्त वास्तविक अनन्तके अर्थमें आई है।
(५) अप्रदेशिकानन्त- परिमाणहीन अर्थात् अत्यन्त अल्प परमाणुरूप ।
(६) एकानन्त- एकदिशात्मक अनन्त । यह वह अनन्त है जो एक दिशा सीधी एक रेखारूपसे देखनेमें प्रतीत होता है।
(७) विस्तारानन्त- द्विविस्तारात्मक अथवा पृष्ठदेशीय अनन्त । इसका अर्थ है
प्रतरात्मक अनन्ताकाश ।
(८) उभयानन्त-द्विदिशात्मक अनन्त । इसका उदाहरण है एक सीधी रेखा जो दोनों दिशाओंमें अनन्त तक जाती है।
(९) सर्वानन्त-आकाशात्मक अनन्त । इसका अर्थ है त्रिधा-विस्तृत अनन्त, अर्थात् घनाकार अनन्ताकाश ।
(१०) भावानन्त-तत्काल उपयोगमें आते हुए ज्ञानकी अपेक्षा अनन्त । इस संज्ञाका उपयोग उस पुरुषके लिये किया जाता है जिसे अनन्त-विषयक शास्त्रका ज्ञान है और जिसका उस ओर उपयोग है ।
(११) शाश्वतानन्त-- नित्यस्थायी या अविनाशी अनन्त ।
पूर्वोक्त वर्गीकरण खूब व्यापक है जिसमें उन सब अर्थोंका समावेश हो गया है जिन अर्थोंमें कि 'अनन्त ' संज्ञाका प्रयोग जैन साहित्यमें हुआ है ।
१ ढवणाणंतं णाम तं कट्ठकम्मेसु वा चित्तकम्मेसु वा पोत्तकम्मसु वा.........अक्खो वा बराडयो वाजे च अण्णे ढवणाए हविदा अणंतमिदि तं सव्वं तृवणाणतं णाम । ध, ३, पृ. ११ से १२.
२ जं तं दव्वाणंतं तं दुविहं आगमदो णोआगमदो य। ध. ३, पृ. १२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org