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________________ १, ८, १६.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२५१ कुदो ? मिच्छादिट्ठीणमाणंतियादो । को गुणगारो ? अभवसिद्धिएहि अणंतगुणो, सिद्धेहि वि अणंतगुणो, अणंताणि सव्यजीवरासिपढमवग्गमूलाणि । को पडिभागो ? असंजदसम्मादिट्ठी पडिभागो । असंजदसम्मादिडिट्ठाणे सव्वत्थोवा उवसमसम्मादिट्ठी ॥१५॥ संजदासजदादिट्ठाणपडिसेहट्टं असंजदसम्मादिट्ठिट्ठाणवयणं । उवरिमुच्चमाणरासिअवेक्खं सव्वत्थोववयणं । सेससम्मादिट्टिपडिसेहट्टमुवसमसम्मादिहिवयणं । खइयसम्मादिट्ठी असंखेज्जगुणा ॥ १६ ॥ उवसमसम्मत्तादो खइयसम्मत्तमइदुल्लहं, दंसणमोहणीयक्खएण उक्कस्सेण छम्मासमंतरिय उक्कस्सेण अद्वत्तरसदमेत्ताणं चेव उप्पज्जमाणत्तादो। खइयसम्मत्तादो उवसमसम्मत्तमइसुलहं, सत्तरादिदियाणि अंतरिय एगसमएण पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेसु तदुप्पत्तिदंसणादो । तदो खइयसम्मादिट्ठीहिंतो उवसमसम्मादिट्ठीहिं असंखेजगुणेहि होदव्यमिदि ? सच्चमेदं, किंतु संचयकालमाहप्पेण उवसमसम्मादिट्टीहिंतो खइय क्योंकि, मिथ्यादृष्टि अनन्त होते हैं । शंका--गुणकार क्या है ? समाधान-अभव्यसिद्धोंसे अनन्तगुणा और सिद्धोंसे भी अनन्तगुणा गुणकार है, जो सम्पूर्ण जीवराशिके अनन्त प्रथम वर्गमूलप्रमाण है। शंका-प्रतिभाग क्या है ? समाधान--असंयतसम्यग्दृष्टि राशिका प्रमाण प्रतिभाग है। असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टि जीव सबसे कम हैं ॥ १५ ॥ संयतासंयत आदि गुणस्थानोंका निषेध करनेके लिये सूत्र में 'असंयतसम्यग्दृष्टिस्थान' यह वचन दिया है । आगे कही जानेवाली राशियोंकी अपेक्षा 'सबसे कम' यह वचन दिया है। शेष सम्यग्दृष्टियोंका प्रतिषेध करनेके लिये 'उपशमसम्यग्दृष्टि' यह वचन दिया है। ___ असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव असंख्यातगुणित हैं ॥ १६ ॥ शंका–उपशमसम्यक्त्वसे क्षायिकसम्यक्त्व अतिदुर्लभ है, क्योंकि, दर्शनमोहनीयके क्षयद्वारा उत्कृष्ट छह मासके अंतरालसे अधिकसे अधिक एकसौ आठ जीवोंकी ही उत्पत्ति होती है। परंतु क्षायिकसम्यक्त्वसे उपशमसम्यक्त्व अतिसुलभ है, क्योंकि, सात रात-दिनके अंतरालसे एक समयमें पल्योपमके असंख्यातवें भागप्रमित जीवोंमें उपशमसम्यक्त्वकी उत्पत्ति देखी जाती है। इसलिये क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंसे उपशमसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित होना चाहिए ? समाधान—यह कहना सत्य है, किन्तु संचयकालके माहात्म्यसे उपशमसम्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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