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२५४ छक्खंडागमे जीवट्ठाणं
[१, ८, १६. सम्माइद्विणो असंखेज्जगुणा जादा । तं जहा- उवसमसम्मत्तद्धा उक्कस्सिया वि अंतोमुहुत्तमेत्ता चेय। खइयसम्मत्तद्धा पुण जहणिया अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सिया दोपुव्वकोडिअब्भहियतेत्तीससागरोवममेत्ता । तत्थ मज्झिमकालो दिवड्डपलिदोवममेत्तो । एत्थ अंतोमुहुत्तमंतरिय संखेज्जोवक्कमणसमएसु घेप्पमाणेसु पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेतोवक्कमणकालो लब्भइ । एदेण कालेण संचिदर्जावा वि पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्ता होदण आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तुवक्कमणकालेण समयं पडि उवक्कंतपलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागमेत्तजीवेण संचिदउवसमसम्मादिट्ठीहितो असंखेज्जगुणा होति । ण सेसवियप्पा संभवंति, ताणमसंखेज्जगुणसुत्तेण सह विरोहा ।
एत्थ चोदओ भणदि- आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तंतरेण खइयसम्मादिट्ठीण सोहम्मे जइ संचओ कीरदि पवेसाणुसारिणिग्गमादो मणुसेस्सु असंखेज्जा खइयसम्मादिद्रिणो पावेंति । अह संखेज्जावलियंतरेण ट्ठिइसंचओ कीरदि, तो संखेज्जावलियाहि पलिदोवमे खंडिदे एयक्खंडमेत्ता खइयसम्मादिद्विणो पावेति । ण च एवं, आवलियाए असंखेज्जदिभागमेत्तभागहारब्भुवगमादो। तदो दोहि वि पयारेहि दोसो चेय ढुक्कदि
ग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हो जाते हैं । वह इस प्रकार है- उपशमसम्यक्त्वका उत्कृष्ट काल भी अन्तर्मुहूर्तमात्र ही है । परन्तु क्षायिकसम्यक्त्वका जघन्य काल अन्तर्मुहूर्त है और उत्कृष्ट काल दो पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरोपमप्रमाण है। उसमें मध्यम काल डेढ़ पल्योपमप्रमाण है। यहां पर अन्तर्मुहर्तकालको अन्तरित करके उपक्रमणके संख्यात समयोंके ग्रहण करने पर पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकाल प्राप्त होता है। इस उपक्रमणकालके द्वारा संचित हुए जीव पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र हो करके भी आवलीके असंख्यातवें भागमात्र उपक्रमणकालके द्वारा प्रत्येक समयमें प्राप्त होनेवाले पल्योपमके असंख्यातवें भागमात्र जीवोंसे संचित हुए उपशमसम्यग्दृष्टियोंकी अपेक्षा असंख्यातगुणित होते हैं। यहां शेप विकल्प संभव नहीं है, क्योंकि, उन विकल्पोंका असंयतसम्यग्दृष्टि गुणस्थानमें 'उपशमसम्यग्दृष्टियोंसे क्षायिकसम्यग्दृष्टि असंख्यातगुणित हैं ' इस सूत्रके साथ विरोध आता है।
शंका-यहां पर शंकाकार कहता है कि आवलीके असंख्यातवें भागमात्र अन्तरसे क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंका सौधर्म स्वर्गमें यदि संचय किया जाता है तो प्रवेशके अनुसार निर्गम होनेसे अर्थात् आयके अनुसार व्यय होनेसे मनुष्योंमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त होते हैं। और यदि संख्यात आवलियोंके अन्तरालसे स्थितिका संचय करते हैं तो संख्यात आवलियोंसे पल्योपमके खंडित करने पर एक खंडमात्र क्षायिकसम्यग्दृष्टि प्राप्त होते हैं। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि, आवलिके असंख्यातवें भागमात्र भागहार स्वीकार किया गया है। इसलिए दोनों प्रकारोंसे भी दोष ही प्राप्त होता है ?
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