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________________ १, ८, १६.] अप्पाबहुगाणुगमे ओघ-अप्पाबहुगपरूवणं [२५५ त्ति ? ण एस दोसो, खइयसम्मादिट्ठीणं पमाणागमणटुं पलिदोवमस्स संखेज्जावलियमेत्तभागहारस्स जुत्तीए उवलंभादो । तं जहा- अट्ठसमयब्भहियछम्मासम्भंतरे जदि संखेज्जुवक्कमणसमया लब्भंति, तो दिवड्वपलिदोवमभंतरे किं लभामो त्ति पमाणेण फलगुणिदिच्छाए ओवट्टिदाए उवक्क्रमणकालो लब्भदि । तम्मि संखेज्जजीवेहि गुणिदे संखेज्जावलियाहि ओवट्टिदपलिदोवममेत्ता खइयसम्मादिद्विणो लब्भंति । तेण आवलियाए असंखेज्जदिभागो भागहारो ति ण घेत्तव्यो । उवक्कमणंतरे आवलियाए असंखेज्जदिभागे संते एदंण घडदि त्ति णासंकणिज्ज, मणुसेसु खइयसम्मादिट्ठीणं असंखेज्जाणमत्थित्तप्पसंगादो। एवं संते सासणादीणमसंखेज्जावलियाहि भागहारेण होदव्यं ? ण एस दोसो, इट्टत्तादो । ण अण्णेसिमाइरियाणं वक्खाणेण विरुद्धं ति एदस्स वक्खाणस्स अभद्दत्तं, सुत्तेण सह अविरुद्धस्स अभद्दत्तविरोहादो । एदेहि पलिदोवममवहिरदि अंतोमुहुत्तेण कालेणेत्ति सुत्तेण वि ण विरोहो, तस्स उवयारणिबंधणत्तादो । ..................... समाधान--यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके प्रमाण लानेके लिए पल्योपमका संख्यात आवलिमात्र भागहार युक्तिसे प्राप्त हो जाता है । जैसे- आठ समय अधिक छह मासके भीतर यदि संख्यात उपक्रमणके समय प्राप्त होते हैं, तो डेढ पल्योपमके भीतर कितने समय प्राप्त होंगे? इस प्रकार त्रैराशिक करने पर प्रमाणराशिसे फलराशिको गुणित करके और इच्छाराशिसे भाजित कर देने पर उपक्रमणकाल प्राप्त होता है। उसे संख्यात जीवोंसे गुणित कर देने पर पल्योपममें संख्यात आवलियोंका भाग देने पर जो लब्ध आवे उतने क्षायिकसम्यग्दृष्टि जीव प्राप्त होते इसलिए यहां आवलीका असंख्यातवां भाग भागहार है, ऐसा नहीं ग्रहण करना चाहिए। उपक्रमणकालका अन्तर आवलीका असंख्यातवां भाग होने पर उपर्युक्त व्याख्यान घटित नहीं होता है, ऐसी आशंका भी नहीं करना चाहिए, क्योंकि, ऐसा मानने पर मनुष्योंमें असंख्यात क्षायिकसम्यग्दृष्टियोंके अस्तित्वका प्रसंग आता है। शंका--यदि ऐसा है तो सासादनसम्यग्दृष्टि आदिके असंख्यात आवलियां भागहार होना चाहिए ? समाधान यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, वह इष्ट ही है। तथा, यह व्याख्यान अन्य आचार्योंके व्याख्यानसे विरुद्ध है, इसलिये इसव्याख्यानके अभद्रता (अयुक्ति-संगतता) भी नहीं है, क्योंकि, इस व्याख्यानका सूत्रके साथ विरोध नहीं है, इसलिये उसके अभद्रताके माननेमें विरोध आता है। 'इन राशियोंके प्रमाणकी अपेक्षा अन्तर्मुहूर्तकालसे पल्योपम अपहृत होता है' इस द्रव्यानुयोगद्वारके सूत्रके साथ भी उक्त व्याख्यानका विरोध नहीं आता है, क्योंकि, वह सूत्र उपचार-निमित्तक है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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