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________________ ११६] - छक्खंडागमे जीवट्ठाणं - [१, ६, २३५ः अंतोमुहुत्तमच्छिय (५) संजमासंजमं पडिवण्णो । पुबकोडिं संजमासंजममणुपालिदूण मदो देवो जादो । पंचहि अंतोमुहुत्तेहि ऊणिया पुव्यकोडी लद्धमंतरं । ... संजदासंजदाणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णथि अंतरं, णिरंतरं ॥ २३५॥ सुगममेदं । एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुत्तं ॥ २३६ ॥ एदं पि सुगम, ओघादो एदस्स भेदाभावा । उक्कस्सेण छावट्ठिसागरोवमाणि सादिरेयाणि ॥ २३७ ॥ तं जहा- एक्को अट्ठावीससंतकम्मिओ मणुसेसु उववण्णो । अट्ठवस्सिओ संजमासंजमं वेदगसम्मत्तं च जुगवं पडिवण्णो (१)। अंतोमुहुत्तेण संजमं गंतूणंतरिय संजमेण पुयकोडिं गमिय अणुत्तरदेवेसु तेत्तीसाउट्ठिदिएसु उववण्णो (३३)। तदो चुदो पुचकोडाउगेसु मणुसेसु उववण्णो । खइयं पट्टविय संजममणुपालिय पुणो समऊणतेत्तीसकर (५) संयमासंयमको प्राप्त हुआ । पूर्वकोटीप्रमाण संयमासंयमको परिपालनकर मरा और देव होगया। इस प्रकार पांच अन्तर्मुहूतोंसे कम पूर्वकोटीकालप्रमाण अन्तर लब्ध हुआ। मतिज्ञानादि तीनों ज्ञानवाले संयतासंयतोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ २३५ ॥ यह सूत्र सुगम है। उक्त जीवोंका एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ २३६ ॥ यह सूत्र भी सुगम है, क्योंकि, ओघप्ररूपणासे इसका कोई भेद नहीं है। तीनों ज्ञानवाले संयतासंयतोंका एक जीवकी अपेक्षा उत्कृष्ट अन्तर साधिक छयासठ सागरोपम है ॥ २३७ ॥ जैसे- मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्तावाला एक जीव मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। आठ वर्षका होकर संयमासंयम और वेदकसम्यक्त्वको एक साथ प्राप्त हुआ (१)। पुनः अन्तर्मुहूर्तसे संयमको प्राप्त करके अन्तरको प्राप्त हो, संयमके साथ पूर्वकोटीप्रमाण काल बिता कर तेतीस सागरोपमकी आयुस्थितिवाले अनुत्तरविमानवासी देवोंमें उत्पन्न हुआ (३३)। वहांसे च्युत हो पूर्वकोटीकी आयुवाले मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। तब क्षायिकसम्यक्त्वको धारणकर और संयमको परिपालनकर पुनः एक समय कम तेतीस १ संयतासंयतस्य नानाजीवापेक्षया नास्त्यन्तरम् । स. सि. १, ८. २ एकजीव प्रति जघन्येनान्तर्मुहूर्तः। स. सि. १, ८. ३ उत्कर्षेण षट्षष्टिसागरोपमाणि सातिरेकाणि । स. सि. १, ८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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