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________________ २१४] छक्खंडागमे जीवट्ठाणं [१, ८, २. एआदिचउण्णमेत्तजीवाणं पवेसं पडि पडिसेहाभावा । ण च सव्वद्धं. तिसु उवसामगेसु पविसंतजीवेहि सरिसत्तणियमो, संभवं पडुच्च सरिसत्तउत्तीदो । एदेसि संचओ सरिसो असरिसो त्ति वा किण्ण परूविदो? ण.एस दोसो, पवेससारिच्छेण तेसिं संचयसारिच्छस्स वि अवगमादो। पविस्समाणजीवाणं विसरिसत्ते संते संचयस्स विसरिसत्तं, अण्णहा दिडविरोहादो । अपुव्वादिअद्धाणं थोव-बहुत्तादो विसरिसत्तं संचयस्स किण्ण होदि त्ति पुच्छिदे ण होदि, तिण्हमुवसामगाणमद्धाहिंतो उक्कस्सपवेसंतरस्स बहुत्तुवदेसादो । तम्हा तिण्हं संचओ वि सरिसो चेय । थोवा उवरि उच्चमाणगुणहाणाण संखं पेक्खिय थोवा त्ति भणिदा। अपेक्षा तुल्य अर्थात् सदृश होते हैं, क्योंकि, एकसे लेकर चौपन मात्र जीवोंके प्रवेशके प्रति कोई प्रतिषेध नहीं है। किन्तु सर्वकाल तीनों उपशामकोंमें प्रवेश करनेवाले जीवोंकी अपेक्षा सदृशताका नियम नहीं है, क्योंकि, संभावनाकी अपेक्षा सदृशताका कथन किया गया है। शंका--इन तीनों उपशामकोंका संचय सदृश होता है, या असदृश होता है, इस बातका प्ररूपण क्यों नहीं किया? . समाधान-यह कोई दोष नहीं, क्योंकि, प्रवेशकी सदृशतासे उनके संचयकी सहशताका भी ज्ञान हो जाता है। प्रविश्यमान जीवोंकी विसदृशता होने पर ही संचयकी विसदृशता होती है; यदि ऐसा न माना जाय तो प्रत्यक्षसे विरोध आता है। शंका-अपूर्वकरण आदिके कालोंमें परस्पर अल्पबहुत्व होनेसे संचयके विसदृशता क्यों नहीं हो जाती है ? समाधान-ऐसी आशंकापर आचार्य उत्तर देते हैं कि अपूर्वकरण आदिके कालके हीनाधिक होनेसे संचयके विसदृशता नहीं होती है, क्योंकि, तीनों उपशामकोंके कालोंसे उत्कृष्ट प्रवेशान्तरका काल बहुत है ऐसा उपदेश पाया जाता है। इसलिए तीनोंका संचय भी सदृश ही होता है। विशेषार्थ-यहां पर शंकाकारने यह शंका उठाई है कि जब अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंका काल हीनाधिक है, अर्थात् अपूर्वकरणका जितना काल है, उससे संख्यातगुणा हान अनिवृत्तिकरणका काल है और उससे संख्यातगुणा हीन सूक्ष्मसाम्परायका काल है, तब इन गुणस्थानोंमें संचित होनेवाली जीवराशिका प्रमाण भी हीनाधिक ही होना चाहिए, सदृश नहीं होना चाहिए ? इसके समाधानमें यह कहा गया है कि तीनों उपशामकोंके कालोसे उत्कृष्ट प्रवेशान्तरके बहुत होनेका उपदेश पाया जाता है । इसका अभिप्राय यह है कि यद्यपि अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंका काल हीनाधिक है, तथापि वह प्रत्येक अन्तर्मुहूर्त या असंख्यात समयप्रमाण है। किन्तु इन गुणस्थानों में प्रवेश कर संचित होनेवाले जीव संख्यात अर्थात् उपशमश्रेणीके प्रत्येक गुणस्थानमें अधिकसे अधिक तीन १ प्रतिषु पडिसेहाभावाणं च ' इति पाठः। २ प्रतिषु णण्णहा' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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