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________________ [२११ १, ८, २.] अप्पाबहुगाणुगमे णिदेस-परूवणं कत्थप्पाबहुअं ? जीवदव्वे । केवचिरमप्पाबहुअं ? अणादि-अपज्जवसिदं । कुदो ? सव्वेसि गुणट्ठाणाणमेदेणेव पमाणेण सव्वकालमवट्ठाणादो । कइविहमप्पाबहुअं? मग्गणभेयभिण्णगुणट्ठाणमेत्तं । अप्पं च बहुअंच अप्पाबहुआणि । तेसिमणुगमो अप्पाबहुआणुगमो । तेण अप्पाबहुआणुगमेण णिद्देसो दुविहो होदि ओघो आदेसो त्ति । संगहिदवयणकलावो दबट्ठियणिबंधणो ओपो णाम । असंगहिदवयणकलाओ पुव्विल्लत्यावयवणिबंधो पजवट्ठियणिबंधणो आदेसो णाम । ओघेण तिसु अद्धासु उवसमा पवेसणेण तुल्ला थोवा ॥२॥ तिसु अद्धासु त्ति वयणं चत्तारि अद्धाओ पडिसेहढें । उवसमा त्ति वयणं खवयादिपडिसेहफलं । पवेसणेणेत्ति वयणं संचयपडिसेहफलं । तुल्ला त्ति वयणेण विसरिसत्तपडिसेहो कदो । आदिमेसु तिसु गुणट्ठाणेसु उवसामया पवेसणेण तुल्ला सरिसा । कुदो ? शंका-अल्पबहुत्व किसमें होता है, अर्थात् उसका अधिकरण क्या है ? समाधान-जीवद्रव्यमें, अर्थात् जीवद्रव्य अल्पबहुत्वका अधिकरण है। शंका-अल्पबहुत्व कितने समय तक होता है ? समाधान-अल्पबहुत्व अनादि और अनन्त है, क्योंकि, सभी गुणस्थानोंका इसी प्रमाणसे सर्वकाल अवस्थान रहता है। शंका-अल्पबहुत्व कितने प्रकारका है ? समाधान-मार्गणाओंके भेदसे गुणस्थानोंके जितने भेद होते हैं, उतने प्रकारका अल्पबहुत्व होता है। अल्प और बहुत्वको अर्थात् हीनता और अधिकताको अल्पबहुत्व कहते हैं। उनका अनुगम अल्पबहुत्वानुगम है । उससे अर्थात् अल्पबहुत्वानुगमसे निर्देश दो प्रकारका है, ओघनिर्देश और आदेशनिर्देश । जिसमें सम्पूर्ण वचन-कलाप संगृहीत है, और जो द्रव्यार्थिकनय-निमित्तक है, वह ओघनिर्देश है। जिसमें सम्पूर्ण वचन-कलाप संगृहीत नहीं है, जो पूर्वोक्त अर्थावयव अर्थात् ओघानुगममें बतलाये गये भेदोंके आश्रित है और जो पर्यायार्थिकनय-निमित्तक है वह आदेशनिर्देश है। ओघनिर्देशसे अपूर्वकरणादि तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी अपेक्षा परस्पर तुल्य हैं, तथा अन्य सब गुणस्थानोंके प्रमाणसे अल्प हैं ॥२॥ 'तीनों गुणस्थानोंमें' यह वचन चार उपशामक गुणस्थानोंके प्रतिषेध करनेके लिए दिया है । ' उपशामक' यह वचन क्षपकादिके प्रतिषेधके लिए दिया है । 'प्रवेशकी अपेक्षा' इस वचनका फल संचयका प्रतिषेध है। 'तुल्य' इस वचनसे विसदृशताका प्रतिषेध किया है। श्रेणीसम्बन्धी आदिके तीन गुणस्थानोंमें उपशामक जीव प्रवेशकी १ प्रतिषु 'पुव्विलद्धा' इति पाठः । मप्रतौ तु स्वीकृतपाठः। २ सामान्येन तावत् त्रय उपशमकाः सर्वतः स्तोकाःस्वगुणस्थानकालेषु प्रवेशेन तुल्यसंख्याः।स. सि.१.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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