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________________ - ३८ ] छक्खडागमें जीवद्वाणं सुगममेदं सुतं । एगजीवं पडुच्च जहणेण अंतोमुहत्तं ॥ ४० ॥ कुदो ? तिन्हं पंचिदियतिरिक्खाणं तिष्णि मिच्छादिट्ठिजीवे दिट्ठमग्गे सम्मत्तं' सत्रहणकाले पुणो मिच्छत्ते गेण्हाविदे अंतोमुहुत्त कालवलंभा । उक्कस्सेण तिष्णि पलिदोवमाणि देसूणाणि ॥ ४१ ॥ [ १, ६, ४०. तं जधा - तिणि तिरिक्खा मणुसा वा अट्ठावीस संतकम्मिया तिपलिदोवमा उद्विदिसु पंचिदियतिरिक्खति गकुक्कुड-मक्कडादिएसु उववण्णा, वे मासे गन्भे अच्छिदूण णिक्खता, मुहुत्तपुधतेण विसुद्धा वेदगसम्मत्तं पडिवण्णा अवसाणे आउअं बंधिय मिच्छतं गदा । लद्धमंतरं । भूओ सम्मत्तं पडिवज्जिय कालं करिय सोधम्मीसाणदेवेसु उववण्णा । एवं वेअंतोमुहुतेहि मुहुत्तपुधत्तब्भहिय-वेमासेहि य ऊणाणि तिष्णि पलिदोवमाणि तिन्हं मिच्छादिट्ठीणमुक्कस्संतरं होदि । सासणसम्मादिट्टि सम्मामिच्छादिट्टीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च जहण्णेण एगसमयं ॥ ४२ ॥ " यह सूत्र सुगम है । उक्त जीवोंमें एक जीवकी अपेक्षा जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त है ॥ ४० ॥ क्योंकि, तीनों ही प्रकारके पंचेन्द्रिय तिर्यचोंके तीन मिथ्यादृष्टि दृष्टमार्गी जीवोंको असंयतसम्यक्त्व गुणस्थानमें ले जाकर सर्वजघन्यकालसे पुनः मिथ्यात्वके ग्रहण कराने पर अन्तर्मुहूर्तकालप्रमाण अन्तर पाया जाता है । उक्त तीनों ही प्रकारके मिथ्यादृष्टि तिर्यंचोंका अन्तर कुछ कम तीन पल्योपमप्रमाण है ॥ ४१ ॥ जैसे - मोहकर्मकी अट्ठाईस प्रकृतियोंकी सत्ता रखनेवाले तीन तिर्यंच अथवा मनुष्य, तीन पल्योपमकी आयुस्थितिवाले पंचेन्द्रिय तिर्यंच त्रिक कुक्कुट, मर्कट आदिमें उत्पन्न हुए व दो मास गर्भमें रहकर निकले और मुहूर्तपृथक्त्वसे विशुद्ध होकर वेदकसम्यक्त्वको प्राप्त हुए और आयुके अन्तमें आगामी आयुको बांधकर मिथ्यात्वको प्राप्त हुए । इस प्रकार से अन्तर प्राप्त हुआ। पुनः सम्यक्त्वको प्राप्त कर और मरण करके सौधर्म-ईशान देवोंमें उत्पन्न हुए । इस प्रकार इन दो अन्तर्मुहूर्तोंसे और मुहूर्तपृथक्त्वसे अधिक दो से कम तीन पल्योपमकाल तीनों जातिवाले तिर्यच मिथ्यादृष्टियोंका उत्कृष्ट अन्तर होता है । Jain Education International उक्त तीनों प्रकारके तिर्यंच सासादनसम्यग्दृष्टि और सम्यग्मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा जघन्यसे एक समय होता है ॥ ४२॥ १ प्रतिषु ' सम्मत्तस्स ' इति पाठः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001399
Book TitleShatkhandagama Pustak 05
Original Sutra AuthorPushpadant, Bhutbali
AuthorHiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
PublisherJain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
Publication Year1942
Total Pages481
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & Karma
File Size9 MB
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