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१, ६, ३९.] अंतराणुगमे तिरिक्ख-अंतरपरूवणं
[३७ संजदासजदाणं णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अतरं; एगजीवं पडुच्च जहण्णेण अंतोमुहुत्तं, उक्कस्सेण अद्धपोग्गलपरियट्टू देसूर्ण । एत्थ विसेसो उच्चदे- एक्को अणादियमिच्छादिट्ठी अद्धपोग्गलपरियट्टस्सादिसमए उवसमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (१) छावलियावसेसाए उवसमसम्मत्तद्धाए आसाणं गंतूणंतरिदो मिच्छत्तं गदो । अद्धपोग्गलपरियट्ट परिभमिय दुचरिमे भवे पंचिंदियतिरिक्खेसु उप्पज्जिय उवसमसम्मत्तं संजमासंजमं च जुगवं पडिवण्णो (२) । लद्धमंतरं । तदो मिच्छत्तं गदो (३) आउअं बंधिय (४) विस्समिय (५) कालं गदो मणुसेसु उववण्णो । उवरि सासणभंगो । एवमट्ठारसमंतोमुहुत्तब्भहिय-अहवस्सेहि ऊणमद्धपोग्गलपरियट्ट संजदासंजदुक्कस्संतरं होदि । तिरिक्खेसु संजमासंजमग्गहणादो पुवमेव मिच्छादिट्ठी मणुसाउअं किण्ण बंधाविदो ? ण, बद्धमणुसाउमिच्छादिद्विस्स संजमग्गहणाभावा ।।
पंचिंदियतिरिक्ख-पंचिंदियतिरिक्खपज्जत्त-पंचिंदियतिरिक्खजोणिणीसु मिच्छादिट्ठीणमंतरं केवचिरं कालादो होदि, णाणाजीवं पडुच्च णत्थि अंतरं, णिरंतरं ॥ ३९ ॥
संयतासंयतोंका नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है; एक जीवकी अपेक्षा जघन्यसे अन्तर्मुहूर्त और उत्कर्षसे कुछ कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल अन्तर है । यहांपर जो विशेषता है उसे कहते हैं- एक अनादि मिथ्यादृष्टि जीव अर्धपुद्गलपरिवर्तनके आदि समयमें उपशमसम्यक्त्वको और संयमासंयमको युगपत् प्राप्त हुआ (१) उपशमसम्यक्त्वके कालमें छह आवलियां अवशेष रह जानेपर सासादनको जाकर अन्तरको प्राप्त होता हुआ मिथ्यात्वमें गया। पश्चात् अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल परिभ्रमण करके द्विचरम भवमें पंचेन्द्रियतिर्यंचोंमें उत्पन्न होकर उपशमसम्यक्त्वको और संयमासंयमको युगपत् प्राप्त हआ (२)। इस प्रकार अन्तर प्राप्त हआ । पश्चात् मिथ्यात्वको गया (३) व आय बांधकर (४) विश्राम ले (५) मरकर मनुष्यों में उत्पन्न हुआ। इसके ऊपर सासादनका ही क्रम है। इस प्रकार अट्ठारह अन्तर्मुहूतौसे अधिक आठ वर्षोंसे कम अर्धपुद्गलपरिवर्तनकाल संयतासंयतका उत्कृष्ट अन्तर होता है।
शंका-तिर्यंचोंमें संयमासंयम ग्रहण करनेसे पूर्व ही उस मिथ्यादृष्टि जीवको मनुष्य आयुका बंध क्यों नहीं कराया ?
समाधान नहीं, क्योंकि, मनुप्यायुको बांध लेनेवाले मिथ्यादृष्टि जीवके सयमका ग्रहण नहीं होता है।
पंचेन्द्रिय तिर्यच, पंचेन्द्रिय तिर्यचपर्याप्त और पंचेन्द्रिय तिर्यच योनिमतियोंमें मिथ्यादृष्टियोंका अन्तर कितने काल होता है ? नाना जीवोंकी अपेक्षा अन्तर नहीं है, निरन्तर है ॥ ३९॥
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